Friday, September 11, 2009

जो चाहोगे, वही छपेगा !

ज़माना गुज़रा जब ‘सारिका’ (अगस्त 1971) में व्यंग्य चित्र छपा था. ‘जो चाहोगे,वही छपेगा!’. 38 साल बाद उसे देखा तो आज के समय में भी यह काफी सामयिक सा लगा. इसे सम्पादक की नज़र से देखें या लेखक की नज़र से, बहुत ही मुफीद किस्म की अभिव्यक्ति लगती है.

ज़रा आप भी देखिए और बताइये मैं कितना ठीक बोल रहा हूं.

7 comments:

  1. acchaa lagaa is puraane lekh dubaara padhakar

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  2. वाह...। ये हुई न Real Archive की बात। पुराने कतरन अब भी बहुत कुछ कह जाते हैं।

    बढिया।

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  3. ये तो, आज के जमाने के ब्लॉग की बात चालीसेक साल पहले कर दी गई थी लगती है.

    ब्लॉग जगत में आपको देखकर सुखद लगा. आपके विशद अनुभवों को भास्कर में पढ़ते रहे हैं.

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  4. वाह इसीलिये कहते हैं पुराने चावल का स्वाद ही अलग होता है. आपका रविवारीय भास्कर के आलेख का हमेशा इंतजार रहता है. उम्मीद है यहां आपको और ज्यादा पढ पायेंगे. शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  5. Bahut Barhia isi tarah likhte rahiye...


    http://sanjaybhaskar.blogspot.com

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  6. बहुत अच्छा लगा बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें

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  7. आप नाम के ही नहीं
    काम से भी राजकुमार निकले
    केसवानी जी।

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