Thursday, December 31, 2009

नव वर्ष की शुभकामनाएं

२०१० सभी के लिए मंगलमय हो


राजकुमार केसवानी


Friday, December 11, 2009

तस्वीर-ए-लापता : दिलीप चित्रे


कोई तीन साल पहले दिलीप भाई का एक मेल आया जिसमें उन्होने उन्होने अपनी एक सीधे उर्दू में लिखी गई छोटी सी नज़्म भेजी थी. आज उस तस्वीर-ए-लापता को पढ़ता हूं तो तब न समझ में आने वाली बातें समझ में आ रही हैं.

मैं यहां सभी दोस्तों के लिए उस मेल के कुछ ज़रूरी हिस्सों के साथ जस का तस पेश कर रहा हूं.

इसी के साथ चित्रे जी की एक पेंटिंग भी हैं.

Date: 21 May 2006 09:31:22 -0700

tasveer-e-lapatah hain yeh ...
mayoosi ke ek khaufnaak daur se guzaraa hoon main,
wahshat ki syah raahon se guzraa hoon main,
ab bas yahi chaahataa hoon ke main
jo mere hamdam hain unko bayan karoon
mere jahannum ke safar ki chand jhalaken...

(तस्वीर-ए-लापता है ये
मायूसी के एक ख़ौफनाक दौर से गुज़रा हूं मैं
वहशत की स्याह रातों से गुज़रा हूं मैं
अब बस यही चाहता हूं कि मैं
जो मेरे हमदम हैं उनको बयान करूं
मेरे जहनुम के सफर की चंद झलकें...)

...maine mere aziz dost Gulzaar Saheb ko ek chotisee nazm pesh ki thi, taaki apne marz aur dard ka unhe pata bata sakoon. Aaj mein uski naql aap ko e-mail se hi forward kar rahaa hoon.

Filhaal,
Khudaa Haafiz !

Wednesday, December 9, 2009

दिलीप चित्रे नहीं रहे !


आख़िर कोई ख़बर इतनी बुरी कैसे हो सकती है ? इतनी बुरी कि वह कहने लगे कि दिलीप चित्रे नहीं रहे !


इतनी बुरी ख़बरों का गला क्यों नहीं घोंट दिया जाता ?


ऐसी तमाम बुरी ख़बरों को पैदा होने की इजाज़त नहीं मिलनी चाहिए जो दुनिया की हर अच्छी चीज़ को मौत देती हों.

कुछ देर पहले ही उदय प्रकाश ने ख़बर दी कि दिलीप चित्रे नहीं रहे. एक घड़ी को तो समझ ही न आया कि उदय क्या कह रहा है. जब समझा तो जी चाहा कि ज़ोर-ज़ोर से चीख़कर इस ख़बर का प्रतिकार करूं. कुछ गालियां बकूं कुछ ख़ुद को, कुछ ज़माने को और कुछ उसको जिसे मौत का नियामक कहा जाता है.


कुछ देर बाद दिलीप भाई का मुस्कराता हुआ चेहरा नज़र आया तो जी चाहा रो लूं. और कुछ मिनट गुज़रे तो यादें फिल्म की तरह आंखों के आगे चलने लगीं.


दिलीप चित्रे भोपाल में हैं. भारत भवन में वागर्थ के निदेशक. आते ही उनका भोपाल के बारे में एक अदभुत आब्ज़र्वेशन यार ये शहर तो नम्बरी लोगों का शहर है ! . कुछ वक़्त पहले ही उनने सुना है कि भोपाल की बस्तियों के नाम 1250,1464,1100 क्वार्टर्स और 74 बंगले, 45 बंगले, 8 बंगले और 4 बंगले हैं. बाद में उनका मज़ाक़ में किया गया यह आब्ज़र्वेशन ख़ुद उनके लिए हक़ीक़त बनकर सामने आया. नम्बरी लोगों ने उन्हें अपना नम्बरीपन दिखा दिया था.


शायद 1981 की बात या 1982 की. इन्दौर जाने वाली एक बस में दिलीप चित्रे और उनकी पत्नी विजया जी सवार हैं. उनके ठीक पीछे वाली सीट पर मैं, जिसकी उन्हें ख़बर न थी. इन्दौर में दलित साहित्य विमर्श का आयोजन था. विजया जी ने पूछा दिलीप, तुम्हें मालूम है इन्दौर में कहां, कैसे पहुंचना है ?.


रानी साहब फिक्र न करें. वहां बस स्टैंड पर हमारे लिए रथ मौजूद होगा जो हमें वहां ले जाएगा.

दिलीप भाई का आशय था कि वहां उन्हें रिसीव करने मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के अधिकारी पूर्णचन्द्र रथ आयेंगे.


मैने पीछे से आवाज़ दी दिलीप भाई. रथ न मिले तो मेरे साथ आटो में चल सकते हैं.

उन्होने पीछे देखा और कहा ज़रूर. रथ को भी आटो में ही ले चलेंगे. और क्या.


ऐसे ख़ुश मिज़ाज और ज़िन्दा दिल इंसान से एक दिन इसी मौत ने क्रूर खेल खेला. उनसे उनका जवान बेटा आशय छीन लिया. आशय 1984 की भोपाल गैस त्रासदी का शिकार हुआ. 19 साल तक बीमारियों से संघर्ष करते हुए 2003 में दिलीप भाई और विजया जी को अकेला छोड़ गया.


इस सदमे ने दोनो को अन्दर से बुरी तरह तोड़ दिया. मगर दोनो ने एक दूसरे को इस तरह सम्हाला कि दोनो भरपूर जीते हुए लगे. एक-दूसरे को ढाढ़स देने का उपाय था जीवन को जीवन से बेहतर जीकर दिखाना. दुनिया की हर ऐसी चीज़ के साथ जुड़ना जो जीवन को एक नया अर्थ और विस्तार देती हो. औरों के जीवन में नया रंग भरती हो. जीने का उत्साह देती हो.


आज भी मेरे ईमेल बक्से में दिलीप भाई के भेजे हुए सैकड़ों निमंत्रण हैं कभी किसी आयोजन के , कभी किसी किताब या फिर कोई कविता/लेख पढ़ने के लिए. ढेर सारे सोशल नेटवर्किंग ग्रुप्स में शामिल होने के लिए. कुछ न हुआ तो फेस बुक के ज़रिये कभी शुभ कामनाओं का कोई गुलदस्ता या फिर कोई पौधा.


अब तक वे न जाने किन-किन बीमारियों से घिर चुके थे. इनमें लीवर कैंसर भी था. मुझे बहुत दिन तक यह मालूम नहीं हो पाया. जिस दिन मालूम हुआ उस दिन पशेमानी में एक मेल दिलीप भाई को भेजा.


दिलीप भाई,

सदमे में हूं.

अक्सर आपकी तबियत खराब होने की बात होती रही है मगर इस बात की ख़बर न थी कि बीमारी लीवर कैंसर है.

इस घड़ी ख़ुद को किस क़दर लाचार महसूस कर रहा हूं. ऐसा लगता है जैसे मुझे हाथ-पैर बांधकर पटक दिया गया है कि बस असहाय सा देखता रहूं. मगर आस एक है - आपकी जीवटता और आपकी जीजीविषा. ऐसा नहीं कि आपके बारे में पूरी तरह बेखबर रहा हूं. देखता रहा हूं कि आप लगातार सक्रिय हैं. किसी घड़ी लगा ही नहीं कि मौला आपसे कोई खेल खेल रहा है.

वैसे कान में बताने वाली बात यह है दिलीप भाई कि मौला अपने अज़ीज़ों से खेल सिर्फ हारने के लिए ही खेलता है. ठीक वैसे ही जैसे हम लोग बच्चों के साथ खेलते समय जीतने की बजाय हारकर खुश होते हैं.

मैं इस बार भी आपकी जीत और मौला को खुश होते हुए देख रहा हूं.

आमीन!

बेखबरी और लापरवाही की माफियों और दुआओं के साथ,

राजकुमार


दिलीप भाई बड़े थे. उन्होने मुझे माफ कर दिया. मगर मैं शायद उस ख़ुदा को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा जो हर दिन इस दुनिया से बेहतर इंसानों को उठाकर अपने पास बुला लेता है.

Sunday, November 15, 2009

अजब दास्ताँ है मेरी ज़िंदगी की...


एक सदी – यानी सौ बरस. कितने सारे होते हैं ये सौ बरस ? इतने कि हम जिनसे मोहब्बत करते हैं तो उनकी लम्बी उम्र की दुआएं माँगते हुए कहते हैं – ‘आप सौ साल जिएं’. इस दौर में भी कभी-कभार ऐसी दुआएं सच हो ही जाती हैं.

इसी ख़्याल से सोचता हूं तो सोचता हूं आखिर किसने मांगी होगी उमराव जान के लिए ऐसी दुआ. अब देखिए न उमराव की कहानी को सौ बरस के ऊपर हो चले हैं और यह न अब तक सिर्फ ज़िन्दा है बल्कि दिन-ब-दिन उस पर जवानी आती जाती है. उम्र तो बहुत सारे किस्सों और फसानों की उमराव से ज़्यादा है और वो अपनी पूरी पुख्तगी के साथ हमारे साथ मौजूद हैं, मगर उमराव जान की बात थोड़ी अलग है.

मेरी समझ से उमराव जान की इस जवानी का राज़ यह है कि उसकी पूरी कहानी अब तक किसी खूबसूरत राज़ की तरह कुछ सामने है कुछ पसे-पर्दा है. वक़्त की हवाओं के थपेड़े या फिर किसी दिले-आशिक़ की आह से इस राज़ से ज़रा पर्दा हटता है तो कभी एक हक़ीक़त लगती है, कभी एक फसाना लगता है. और जो कुछ कसर बाकी थी उसे मुज़फ्फर अली ने 1981 में रेखा को ‘उमराव जान’ बनाकर पूरा कर दिया.

कभी-कभी कोई फनकार फसानों को भी हक़ीक़त की शक्ल दे देता है. रेखा ने यही काम ‘उमराव जान’ के साथ किया है. अब इसके बाद तो कोई चाहकर भी यह नहीं चाहता कि कोई इसे फसाना कहे.

मैं ख़ुद को भी उन्हीं में से एक गिनता हूं. और मुझे ताज़ा दिलासा इस बात ने दिया है कि कुछ अर्सा पहले उर्दू के नामवर प्रोफेसर क़मर रईस साहब ने एक पत्रिका ‘ऐवाने-उर्दू’ में उमराव जान की एक असल फोटो प्रकाशित की है. यह फोटो उन्हें हैदराबाद से किसी नवाब की लायब्रेरी से मिली है. उस लायब्रेरी में रखी “उमराव जान ‘अदा' “ के पहले एडीशन के अन्दर एक बहुत ही ज़र्द चेहरे वाला ख़स्ता हाल लिफाफा मिला जिसके अन्दर कैमरे से खींची गई यह फोटो मौजूद थी.

यह बात पहले ही ज़माने पर ज़ाहिर है कि जब १९०५ में मिर्ज़ा हादी रुस्वा की यह किताब पहली बार छपकर लोगों तक पहुंची तो उसके फौरन बाद ही इस किताब के जवाब में एक दूसरी किताब आ गई थी ‘जुनूने इंतज़ार याने फसाना-ए-मिर्ज़ा रुस्वा’. माना जाता है कि यह किताब उमराव जान ने रुस्वा से नाराज़ होकर जवाब में लिखी थी. इसके बावजूद अब तक इस बात पर बहस जारी है कि मिर्ज़ा रुस्वा ने अपनी निजी अनुभवों को ‘उमराव जान’ नाम का एक किरदार घड़कर बड़ी कामयाबी से पेश किया है. इतनी कामयाबी से कि वह कदम-कदम पर असल लगता है.

अब हक़ीक़त जो हो लेकिन यह सही है मिर्ज़ा हादी रुस्वा की बदौलत हम सब को कुछ खूबसूरत ग़ज़लें, कुछ बेहतरीन संगीत और कुछ फिल्में मिल गईं.

इतना सब कह चुकने के बाद यह ठीक नहीं है कि मिर्ज़ा रुस्वा और उमराव के बारे में कोई और बात ही न करें. मिर्ज़ा मुहम्मद हादी रुस्वा (1857 से 1931) उर्दू,अरबी,फारसी, अंग्रेज़ी,लैटिन और दूसरी कई ज़बानों के जानकार थे. लखनऊ में पैदा हुए,पले,बड़े. शायरी का शौक़ लगा तो उस दौर के मशहूर उस्ताद दबीर ने मदद की.

यूं तो उन्होने कई किताबें लिखीं और अंग्रेज़ी किताबों के उर्दू मे अनुवाद किए लेकिन ‘उमराव जान अदा’ उनकी अकेली पहचान है.

कि बचपन किसी का, जवानी किसी की

मुज़फ्फर अली की ‘उमराव जान’के संगीत और रेखा की बेमिसाल अदाकारी ने इस कहानी को इसी एक फिल्म के साथ जोड़ कर रख दिया. हक़ीक़त यह है कि इसी कहानी पर सबसे पहले निदेशक एस.एम.यूसुफ ने 1958 में एक फिल्म बनाई थी ‘मेहंदी’. पाकिस्तान में भी 1972 में ‘उमराव जान अदा’ के नाम से फिल्म बनी और 2003 में जियो टीवी ने इसे सीरियल के रूप में पेश किया. लेकिन पाकिस्तान में भी 1981 वाली ‘उमराव जान’ ही ज़्यादा प्रसिद्ध है. 2006 में भी जे.पी.दत्ता ने अभिषेक और ऎश्वर्या को लेकर फिल्म बनाई मगर वो शहीद हो गई.

जब ज़रा ‘उमराव जान’ में ख़य्याम साहब की लासानी बन्दिशों, आशा भोंसले की मद्धम पर आकर इठलाती गायकी और शहरयार की खूबसूरत शायरी की छांव से ज़रा बाहर निकलकर पीछे देखता हूं तो मुझे 1958 की ‘मेहंदी’ नज़र आती है. फिल्म में नवाब सुल्तान वाली भूमिका अजीत ने और अमीरन उर्फ उमराव जान की भूमिका में थीं जयश्री. जयश्री मतलब वी.शांताराम की पत्नी और अभिनेत्री राजश्री की मां. पति से अलग होने के बाद यह उनकी पहली फिल्म थी.

यह फिल्म अभिनय और मेकिंग के लिहाज़ से 1981 की फिल्म से काफी कमज़ोर पड़ती है लेकिन इसका संगीत और शायरी अपनी तरह से बहुत लाजवाब है. यह शायद संगीतकार रवि की बेहतरीन फिल्मों में से एक है. ख़ुमार बाराबंकवी की लाजवाब शायरी ने उमराव जान की पीड़ा को बेहद खूबसूरत लफ्ज़ दिये हैं.

इस फिल्म में ज़्यादातर गीत लता मंगेशकर के गाए हुए हैं. मुझे यकीन है आपको भी याद होंगे. अजब दास्तां है मेरी ज़िन्दगी की, कि बचपन किसी का, जवानी किसी की / मुक़द्दर ने मुझसे ये क्या दिल्लगी की / कि बचपन किसी का, जवानी किसी की. उमराव पर फिल्माई गई लगभग हर ग़ज़ल के मतले मतलब आखिरी शेर में ख़ुमार साहब ने बहुत खूबसूरती से शायर की जगह उमराव के तख़ल्लुस ‘अदा’ का इस्तेमाल भी किया है. आख़िर को उसे फिल्म में एक शायरा के तौर पर भी दिखाया गया है. सिखाया गया है इशारों पे चलना / निगाहें बदलना, दिलों को मसलना / ‘अदाहर अदा है मेरी बेक़सी की’.

दूसरा गीत भी क्या गीत है भई वाह. ‘अपने किये पे कोई पशेमान हो गया / लो और मौत का सामान हो गया’. और फिर आखिर में अदा. ‘’ये बहकी-बहकी बातें, भरी बज़्म में अदा / ये आज क्या तुझे अरे नादान हो गया’.

दो और खूबसूरत नगीने. प्यार की दुनिया लुटेगी हमें मालूम था / दिल की दिल ही में रहेगी, हमें मालूम था’. दूसरा हैअदाओं मे शोखी, निगाहों में मस्ती / लड़कपन मुझे दे गया जाते-जाते. इसी के आखिर में है कि अदा कोई अपना नहीं है जो समझे, मेरे दिल की धड़कन, मेरे दिल की बातें / किसी के कानो में आवाज़ पहुंची, ज़ुबां थक गई है सुनाते-सुनाते’.

इन सबके ऊपर मेरे दिल में जिस चीज़ न अपने लिए एक ख़ास जगह बनाई है वह क़ामिल रशीद की लिखी हुई है. अन्दाज़ साहिर लुधियानवी वाला है. ज़रा देखिए.

ये अफसाना नहीं है सुनने वालों दिल की बाते हैं सियाही ग़म की है वैसे बड़ी रंगीन रातें हैं

यूं तो बहुत लम्बी नज़्म है लेकिन कम से कम एक हिस्सा और सुन लीजिए.

है गुस्ताख़ी मगर कहना है कुछ दुनिया से, मर्दों से शरीफों, मनचलों, मुल्लां से, आवारगर्दों से है बेपर्दा मगर ताने दिए जाते हैं पर्दों से ये अफसाना नहीं है...

अगर आपने ‘उमराव जान’ (1981) देखी है तो आपके लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि फिल्म फिल्म ‘मेहन्दी’ में उस्ताद जी का रोल ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के संगतराश – कुमार ने निभाया था जिसे बाद में भारत भूषण ने निभाया. इस फिल्म में उन पर हेमंत कुमार का गाया एक गीत भी फिल्माया गया है – बेदर्द ज़माना तेरा दुश्मन है तो क्या है / दुनिया में नहीं जिसका कोई उसका ख़ुदा है’.

इस सारी बात का लबो-लुब्बाब यह है कि ‘उमराव जान’ के नाम के साथ अकेली एक फिल्म को याद किया जाता है जबकि ‘मेहंदी’ भी इसी उपन्यास पर आधारित थी और इसमें खूबसूरत संगीत था. फिल्म की छोड़िए पर हो सके तो आप इसका संगीत ज़रूर सुनिये और मुझे भी बताइये कि आपको यह कैसा लगा.

एक बात और. उमराव जान ख़ुद एक अछी शायरा थीं. पुस्तक में उसकी शायरी के कुछ खूबसूरत नमूने मौजूद हैं.

किसको सुनाएं हाल दिले-ज़ार अदा आवारगी में हमने ज़माने की सैर की

***


शब--फुरकत बसर नहीं होती नहीं होती, सहर नहीं होती शोर--फरयाद अर्श तक पहुंचा मगर उसको ख़बर नहीं होती

लीजिए जिस बात की ‘उसको’ तब ख़बर नहीं हुई उस बात की ख़बर अब सारे ज़मने में है. इसी लिए तो चचा ग़ालिब ने कहा है कि ‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक’.


और...

इस नफे-नुकसान की गणित से चलती दुनिया में जब कोई लाभ-हानि से हटकर सोचता है तो बहुत प्यारा लगता है. फिल्म ‘ब्लू अम्ब्रेला’ को देखे काफी दिन बीत चुके हैं पर पंकज कपूर की बात अब तक साथ चल रही है.

फिल्म में पंकज कपूर का दिल एक नीले रंग के खूबसूरत छते पर आ जाता है जो कि एक बच्ची के पास है. जब तमाम प्रलोभनों के बावजूद वह बच्ची नन्दू (पंकज कपूर) को छाता बेचने से इंकार कर देती है तो वह चोरी पर उतारू हो जाता है.

जब उसे समझाइश दी जाती है कि ऐसा नहीं करना चाहिए और आखिर एक मामूली से छाते के लिए यह सब करने से क्या फायदा. तब ज़रा उसका सवालों से भरा जवाब देखिये.

बारिश के पानी में नाव दौड़ाने से कोई फायदा होता है क्या ? सूरज को उस पहाड़ी के पीछे डूबते हुए देखने से कोई फायदा है क्या ? आत्मा की ख़ुशी के लिए फायदा-नुकसान नहीं देखा जाता.’
है न सौ टंच सची बात ? बस तो इस घड़ी तो मैं चला अगले हफ्ते फिर करेंगे वही आत्मा की खुशी की बात – आपस की बात .
जय-जय.

(दैनिक भास्कर के रविवारीय 'रसरंग' में प्रकाशित १५ नवम्बर २००९ )

Thursday, October 29, 2009

‘ये लड़का पूछता है, अख्तरुल-ईमान तुम ही हो?


एक भूला बिसरा नाम- अख्तरुल-ईमान (1915-1996). ज़्यादातर लोग उन्हें एक फिल्मी लेखक के तौर पर जानते हैं. थे भी. मगर फिल्मों से बहुत पहले ही वो एक नामवर शायर और कहानीकार थे. इसी ताक़त के दम पर उन्होने फिल्मी दुनिया में मर्तबा हासिल किया. फिल्मों में रहते हुए भी शायरे नाता बरकार रहा. यूं तो उन्होने 1948 में फिल्म झरना के साथ अपना फिल्मी सफर शुरू किया, मगर उनकी खास पहचान बी.आर.चौपड़ा की बामक़सद फिल्मों के लेखक के तौर पर जाना गया.


कहानियों से ज़्यादा संवाद लिखे. और क्या ख़ूब लिखे. चिनाय सेठ ! जिनके घर शीशे के होते हैं वह औरों के घर पे पत्थर नहीं फैंकते. (फिल्म: वक़्त-1965)


बहरहाल इस वक़्त मैं उनकी फिल्मों के बजाय ज़िक्र करना चाहता हूं उनके साहित्यिक अवदान का. उस साहित्य का जिसके लिए 1962 में उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ. अतहर फारूक़ी जैसे उर्दू भाषा के विद्वानों का कहना है कि ...अख्तरुल-ईमान की शायरी के तमाम पहलुओं को समझने में तो अभी उन उर्दूवालों को भी सदियां लगेंगी जो अभी तक अठारहवीं शती के विशुद्ध प्राच्य परम्परा के कवि मीर को भी ठीक से नहीं समझ सके हैं.


अख़्तरुल-ईमान ने अपनी शायरी में ग़ज़ल की बजाय नज़्म को ज़्यादा तवज्जो दी. हर नज़्म अपनी पूरी जटिलता के साथ एक दर्द,एक कहानी,एक चेहरा और एक सवाल बनकर उसे पढ़ने-सुनने वाले के साथ हमेशा-हमेशा के लिए रह जाती है. उनकी बेहद मशहूर नज़्म एक लड़का ऐसी ही एक चीज़ है. इस नज़्म को लेकर वे ख़ुद कहते हैं : ...फिर एक दिन, रात के एक बजे के करीब मेरी आंख खुल गई. ज़ेहन में एक मिसरा गूंज रहा था ये लड़का पूछता है, अख्तरुल-ईमान तुम ही हो? मुझे मालूम था, यह लड़का कौन है, मगर मुझसे इस किस्म की पूछ्गछ क्यों कर रहा है ? मुझसे मेरे कर्मों का हिसाब क्यों मांग रहा है...


यह नज़्म ख़ासी लम्बी है सो उसे किसी अगले मौके के लिए रख छोड़ता हूं फिलहाल तो बीच-बाच से कुछ नमूने भर को चीज़ें पेश कर रहा हूं. मतलब जो मुझे बहुत अज़ीज़ हैं.


बर्तन,सिक्के,मुहरें, बेनाम खुदाओं के बुत टूटे-फूटे

मिट्टी के ढेर में पोशीदा चक्की-चूल्हे

कुंद औज़ार, ज़मीनें जिनसे खोदी जाती होंगी

कुछ हथियार जिन्हे इस्तेमाल किया करते होंगे मोहलिक हैवानों पर

क्या बस इतना ही विरसा है मेरा ?

इंसान जब यहां से आगे बढ़ता है, क्या मर जाता है ?

(नज़्म : काले-सफेद परोंवाला परिंदा और मेरी एक शाम)


एक नज़र ज़रा गद्य पर डालिए.


आज का टूटा हुआ आदमी कल के आदमी से मुख़्तलिफ़ है. कल के आदमी के पास ज़मीन बहुत थी, आबादी कम थी. सौ रुपए की नौकरी बड़ी नौकरी होती थी. घर में खटमल-पिस्सू हो जाते थे तो वह बदलकर दूसरे मकान में चला जाता था. एक रुपए में रेलगाड़ी में बैठकर सैकड़ों मील का सफर कर लेता था. आज के आदमी के पास ज़मीन नहीं रही. ज़मीन पर फैलने की बजाय वह आसमान की तरफ बढ़ने लगा है और सौ-सौ मंज़िल की इमारतों में रहने लगा है. खटमल-पिस्सू क्या, आज उसके मकान में सारे ज़मीन-आसमान की बलाएं भी उतर आएं तो वह न बदल सकता है न छोड़ सकता है. कल के आदमी के मकान, दालान-दर-दालान होते थे, बड़े-बड़े कमरों पर आधारित. आज के आदमी के मकान कबूतर के डरबे के बराबर हैं.


और आखिर में अपनी शायरी के बारे में खुद ईमान साहब की बात और एक छोटा सा हिस्सा उनकी एक नज़्म का.

मेरी शायरी क्या है, अगर एक जुमले में कहना चाहें तो मैं इसे इंसान की रूह की पीड़ा कहूंगा.


मैं पयंबर नहीं

देवता भी नहीं

दूसरों के लिए जान देते हैं वो

सूली पाते हैं वो

नामुरादी की राहों से जाते हैं वो

मैं तो परवर्दा हूं ऐसी तहज़ीब का

जिसमें कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ

शर-पसंदों की आमाजगह

अम्न की क़ुमरियां जिसमें करतब दिखाने में मसरूफ़ हैं

मैं रबड़ का बना ऐसा बबुआ हूं जो

देखता,सुनता,महसूस करता है सब

पेट में जिसके सब ज़हर ही ज़हर है

पेट मेरा गर कभी दबाओगे

जिस क़दर ज़हर है

सब उलट दूंगा तुम सबके चेहरों पे मैं !

Thursday, October 22, 2009

जिनके घर में छह लठा, सो अंच गिने न पंच

सागर में एक मित्र बसते हैं – रमेश दत्त दुबे. हिन्दी के जाने-माने कवि-कथाकार. नवीन सागर की बदौलत उनसे मुलाक़ात हुई. मुहब्बत हुई. उनसे जितनी बार मिलो, उतनी बार अहसास होता है कि हम लोग अपने समय के अच्छे लोगों की क़द्र करना नहीं जानते. उनकी योज्ञता,क्षमता और ज्ञानशीलता के बारे में कुछ भी कहने की बजाय बेहतर होगा कि उनके एक बड़े काम की एक छोटी सी बानगी आपके सामने पेश कर दूं.

दुबे जी ने बहुत साल पहले बुंदेलखंड की लोकोक्तियों-कहावतों के संकलन का एक मह्त्वपूर्ण काम किया. इस पुस्तक का नाम है – कहनात. यहां प्रस्तुत कहावतें मतलब कहनात उसी पुस्तक से हैं.

सबसे पहले यह वाली -

इक राम हते इक रावना
बे छत्री, बे बामना
उनने उनकी नार हरी
उनने उनकी नाश करी
बात को बन गओ बातन्ना
तुलसी लिख गए पोथन्ना


किसी छोटी सी बात को बड़ा-चढ़ा कर कहने वाले के लिए कहा जाता है

इत्ते से लाल मियां, इत्ती लम्बी पूंछ
जहां जाएं लाल मियां उतई जाए पूंछ

नकली सम्मानो का दिखावा करने वालों के लिए कहा जाता है.

खा-पी के मों पोंछ लव

मुफ्तखोर

चार लठा के चौधरी, पांच लठा के पंच
जिनके घर में छह लठा, सो अंच गिने पंच

शारीरिक शक्ति को न्याय मानने वालों के लिए कहा जाता है

आज भी हमारे ग्रामीण अंचल में महिलाएं ससुराल में नाम नहीं लेतीं. इस पर दुबे जी ने एक रोचक मिसाल दी है. ‘...पत्नी ने गुलाब जामुन बनाए. अब पति का नाम गुलाब और जेठ का नाम जमुना प्रसाद, ये नाम वो कैसे ले सकती थी सो अपने सहेली से बोली – ‘आज मैने मुन्ना के पिताजी और ताऊ को सीरा में डाला है. सहेली बोली – ‘आज मैं दुकान से वह लेने गई थी जो भगवान के आगे जलाया जाता है’. (उसके पति का नाम कपूर्चन्द था). लौटते में बीच रास्ते में मुन्ना के ताऊ जी खड़े थे. मैं तो एक पेड़ की ओट में छिप गई. जब वे चले गए तब घर लौटी. सास लड़ने लगी कि इतनी देर कहां लगा दी. अब मैं कैसे कहूं, सोचते-सोचते मैने कहा –

बैसाख उतरें बे लगत हैं, उनसें लगो असाढ़
गैल में आढ़े मिल गये, कैसें निकरें-सास

जाते-जाते, एक कहनात और.

पीतर की नथुरी पे इत्तो गुमान
सोने की होती, छूती आसमान

Wednesday, October 21, 2009

सफ़ेद खेत है- काग़ज़, काले बीज - स्याही

लीजिए हो गया एक हफ्ता पूरा और आ गया समय पहेलियों के उत्तर बताने का. आज गुरुवार है न. सबसे पहले तो वंदना जी दूसरी पहेली का सही जवाब मनोज जी ने दिया है(बधाई) हुक्का. बाकी के जवाब हाज़िर हैं.


सफ़ेद खेत में काले बीज --- काग़ज़ और स्याही

ऊपर आग नीचे पानी --- हुक्का

पहाड़ पर गाछ और गाछ पर बुलबुल का खोंता --- हुक्का

जन्मा तो बड़ा, बूढा हुआ तो छोटा ---- हल

गाय जन्मावे हड्डी, हड्डी जन्मावे बछडा ---मुर्गीअंडा

छोटा बगीचा बड़ा फूल --- मोमबत्ती

सफ़ेद मुर्गी छींटती है, काली मुर्गी बटोरती है ---दिनरात

राजा की धोती कौन नापे --- सड़क


तो यह थे जवाब. हिंदी भाषी होने के कारण इन जवाबों तक पहुंचना थोड़ा कठिन था. मैं खुद भी बिना किताब पढ़े शायद एकाध जवाब ही दे पाता. ख़ैर, यह पहेली पूछना भी एक बहाना ही है चीज़ों को एक-दूसरे के साथ बांटने का. सो हो गया.

Friday, October 16, 2009

सफ़ेद खेत में काले बीज

हर भाषा की अपनी एक सुन्दरता है। देस और परदेस की अलग-अलग भाषाओ को जानने-पहचानने की ललक में इधर-उधर को तांक-झाँक करता रहता हूँ । कई मर्तबा बड़ी मज़े की चीज़ें जानने मिल जाती हैं। ऐसे ही एक बार एक चीज़ पढ़ी थी उरांव भाषा के गीतों,मुहावरों के साथ पहेलियाँ। न जाने कबसे निशान लगा रखा है। आज यहाँ पेश किए देता हूँ।

चलिए एक खेल खेलते हैं। पहले सिर्फ़ पहेलियाँ सुनाऊंगा और उनके जवाब अपने पास ही रखूंगा। बस एक हफ्ते। मतलब आज शुक्रवार है सो अगले गुरूवार को जवाब भी लिख दूंगा। इस बीच ज़रा आप भी तो ट्राई मारें। मुझे लगता है आप में से कुछ लोग तो पक्के में जानते ही होंगे। बस सिर्फ़ मौज-मज़े के लिए।

तो हो जाए।

सफ़ेद खेत में काले बीज

ऊपर आग नीचे पानी

पहाड़ पर गाछ और गाछ पर बुलबुल का खोंता

जन्मा तो बड़ा, बूढा हुआ तो छोटा

गाय जन्मावे हड्डी, हड्डी जन्मावे बछडा

छोटा बगीचा बड़ा फूल

सफ़ेद मुर्गी छींटती है, काली मुर्गी बटोरती है

राजा की धोती कौन नापे


अच्छा हां , यह असल का हिन्दी अनुवाद है। तो बस हो जाए।

दीपावली की शुभकामनाएं



सभी मित्रों को दीपावली की शुभकामनाएं

राजकुमार केसवानी




Thursday, October 15, 2009

जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया


एक शायर है शकेब जलाली. सारे बड़े लोगों की तरह इस दुनिया को कुल जमा 32 साल तक नवाज़ा. इन सालों में ही जो कुछ शकेब कर गए, दुनिया में सौ-सौ बरस तक जीकर भी बहुत लोग नहीं कर पाए.


यूं तो शायर की पहचान उसकी शायरी है, मगर कुछ अता-पता मालूम रहे तो अपनापा ज़रा ज़्यादा महसूस होता है. सो नोट कर लें. पैदाइश अलीगढ़ के कस्बे जलाली में तारीख 1 अक्टूबर 1934 को. असल नाम सैयद हसन रिज़वी. कलमी नाम - शकेब जलाली. बदायूं से मैट्रिक तक की तालीम. बंटवारे का शिकार होकर पाकिस्तान चले गए, जहां बी.ए.पास किया. शादी की. जीने को नौकरियां की. पैसे की और ज़माने की तमाम दुश्वारियां झेलीं. दुश्वारियों ने उंगली पकड़कर दुनिया को एक नए रंग में देखने वाली नज़र दी. शकेब ने इस नज़र को ग़ज़लों की शक्ल दे दी जिससे हर कोई देख सकता है.


कहा जाता है कि शकेब ने 15 साल की उम्र से ही शेर कहना शुरू कर दिया था. इसकी कोई खास ख़बर नहीं कि वो लिखा हुआ क्या है. अब तो जो दिखाई देता है वो तो न जाने कितने इंसानों की कुल जमा उम्र के बराबर का दिखाई देता है. आज की नस्ल की नई शायरी पर छाया शकेबाना अन्दाज़ इस बात का एक पायेदार सबूत है.


12 नवम्बर 1966 को रेल पटरी पर जाकर जिस वक़्त शकेब ने जान दी, तब मैं उनकी हस्ती से बेखबर था. सच तो यह है कि वह उम्र बेखबरी की ही थी. इस क़दर कि अपनी भी कुछ ख़बर न थी. कुछ साल पहले मंज़ूर भाई (मंज़ूर एहतेशाम) ने पहली बार कुछ शेर सुनाए. दीवानगी ऐसी तारी हुई कि शकेब की हर चीज़ पढ़ लेने पर उतारू हो गया. पहले तो सिर्फ एक मजमूआ रौशनी ऎ रोशनी ही मौजूद था पर बाद में लाहौर से कुलियाते शकेब जलाली भी आ गया है. अभी मुझ तक नहीं पहुंचा है मगर बहुत देर भी नहीं है उसके आने में.


फिलहाल कुछ शेर, कुछ ग़ज़लें हाज़िर हैं.

1.

वहां की रोशनियों ने भी ज़ुल्म ढाये बहुत

मैं उस गली में अकेला था और साये बहुत


किसी के सर पे कभी टूटकर गिरा ही नहीं

इस आसमां ने हवा में क़दम जमाए बहुत


हवा की रुख़ ही अचानक बदल गया वरना

महक के काफिले सहरां की सिम्त आए बहुत


ये क़ायनात है मेरी ही ख़ाक का ज़र्रा

मैं अपने दश्त से गुज़रा तो भेद पाए बहुत


जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया

तो हम भी राह से कंकर समेट लाए बहुत


बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे

मुसाफिरों को ग़नीमत है ये सराय बहुत


जमी रहेगी निगाहों पे तीरगी दिन भर

कि रात ख़्वाब में तारे उतर के आए बहुत


शकेब कैसी उड़ान अब वो पर ही टूट गए

कि ज़ेरे-दाम जब आए थे फड़फड़ाए बहुत

2.

हमजिंस अगर मिले न कोई आसमान पर

बेहतर है ख़ाक डालिए ऐसी उड़ान पर


आकर गिरा था कोई परिन्दा लहू से तर

तस्वीर अपनी छोड़ गया है चट्टान पर


पूछो समन्दरों से कभी ख़ाक का पता

देखो हवा का नक़्श कभी बादबान पर


यारों मैं इस नज़र की बलंदी का क्या करूं

साया भी अपना देखता हूं आसमान पर


कितने ही ज़ख्म मेरे एक ज़ख्म में छिपे

कितने ही तीर आन लगे इक निशान पर


जल-थल हुई तमाम ज़मीं आसपास की

पानी की बूंद भी न गिरी सायबान पर


मलबूस ख़ुशनुमा है मगर खोखले हैं जिस्म

छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर


हक़ बात आके रुक सी गई थी कभी शकेब

छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर

और आखिर में एक शेर :


तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूं

आंखों को अब न ढांप मुझे डूबता भी देख

Wednesday, October 14, 2009

तैमूर लंग और एक गवैया

आगरा घराने के उस्ताद गायक विलायत हुस्सैन खान ने अपने संस्मरण में एक बहुत मज़ेदार किस्सा बयान किया है. बात सुनने में मज़े की लगती है लेकिन है असल में बड़ी कमाल की . खैर, वह बात बाद को, पहले किस्सा.

किस्सा यूं है बादशाह अमीर तैमूर लंग ने दिल्ली फतेह कर जश्न मनाने का हुक्म दिया. इसमें, ज़ाहिर है कि गीत-संगीत के लिए गवैयों को भी बुलाया गया. खुदा जाने क्या वजह रही हो लेकिन कोई ऐसा उस्ताद गवैया नहीं आया. दरबारियों ने जी तोड़ तलाश के बाद एक अन्धे गायक को ढूंढ ही निकाला.

यह अन्धा गायक काफी सोज़ भरी आवाज़ में गाता था. तैमूर के सामने गाकर उसने उसका दिल खुश कर दिया. बादशाह ने गवैये से उसका नाम पूछा. गवैये ने जवाब दिया : ‘दौलत खां’.
तैमूर को इस बात पर हंसी आ गई. वह खिल्ली उड़ाने वाले अंदाज़ में बोला : ‘क्या दौलत भी अंधी होती है?’

दौलत खां ने बिना विचलित हुए जवाब दिया : ‘अगर अंधी न होती तो लंगड़े के घर क्यों आती’.

पहले मैं सोच रहा था कि आखिर में अपनी बात कहूंगा, अब सोचता हूं इस पर पहले आप कुछ कहें. मैं आपके पीछे-पीछे अपनी बात भी रख दूंगा.

Sunday, October 11, 2009

जुगनू मियां की दुम जो चमकती है रात को


एक शायर हुए हैं अशरफ अली खां फुग़ां. बहुत ही मस्त-मौला किस्म के इंसान थे. चुटकुलेबाज़ी और फिकरेबाज़ी का ऐसा शौक़ था कि उनकी शायरी में भी यही रंग नज़र आते हैं. पैदाइश का तो ठीक पता नहीं लेकिन 1186 में उनकी मृत्यु हुई.


मौका मिला तो इन हज़रत के बारे में कभी थोड़ा विस्तार से लिखूंगा. फिलहाल तो कुछ शेर, कुछ बातें पेशे-खिदमत हैं, जिससे उनकी तबीयत के बारे में खासा अन्दाज़ा हो जाता है.


अब ज़रा देखिये, किस तरह उस्ताद को उस्ताद मानकर भी खुद को ही उस्ताद बना बैठे हैं.

हरचन्द अब नदीम का शागिर्द है फुग़ां

दो दिन के बाद देखिये उस्ताद हो गया


इस चुहलबाज़ी के बावजूद भाषा का भी बहुत खूबसूरती से इस्तेमाल देखने से तालुक रखता है. कहते हैं कि -


मुझसे जो पूछते हो तो हर हाल शुक्र है

यूं भी गुज़र गई मेरी वूं भी गुज़र गई

आख़िर फुग़ां वही है इसे क्यों भुला दिया

वह क्या हुए तपाक वह उल्फत किधर गई


दिल को लेकर ज़रा उनके यह अन्दाज़ देखिए.


कबाब हो गया आखिर को कुछ बुरा न हुआ

अजब यह दिल है जला भी तो बेमज़ा न हुआ


और फिर कहते हैं :



मुफ्त सौदा है अरे यार किधर जाता है

आ मेरे दिल के खरीदार किधर जाता है


आबे हयात में उनको लेकर एक किस्सा है. एक दिन दरबार में फुग़ां ने एक ग़ज़ल पढ़ी जिसका काफिया था लालियां और जालियां. खूब दाद मिली. दरबार मॆं जुगनू मियां नाम का एक मसख़रा था जो राजा का काफी मुंह लगा था. उसने आवाज़ लगाई नवाब साहब, सब काफ़िये आपने बांधे मगर तालियां रह गईं. राजा साहब ने भी इस बात का जब समर्थन किया तो फुग़ां ने कहा को उन्होने तो इसे हक़ीर सी चीज़ समझ छोड़ दिया था. अब अगर फरमाइश है तो अभी हुआ जाता है.



उन्होने फौरन एक शेर पढ़ा :



जुगनू मियां की दुम जो चमकती है रात को

सब देख-देख उसको बजाते हैं तालियां



अब इसके बाद क्या हुआ होगा, यह भी कोई बताने की बात है ?


जानम समझा करो.


तालियां.