Thursday, August 27, 2009

नई पतलून के नखरे

ये कपड़े भी अजीब चीज़ हैं ‍. मतलब इतने अजीब भी नहीं हैं लेकिन कभी-कभी हो जाते हैं . अब जैसे आज की ही बात ले लें . सारे जीन्स मैले पड़े थे तो एक थोडा इज्ज़तदार किस्म के लोगो की पार्टी में पहनने वाला पेंट पहन लिया. कसम खुदा की, क्या जलाया है इस पेंट ने. ज़रा चलो नहीं कि चियूं-चियूं की आवाज़ करता है. बीबी कहती है कि फ़िटिन्ग सही नहीं है तो रगड़ खा रहा है. मेरा ख्याल है कि साला महँगा है तो भाव खा रहा है। मुझे घर मे कैसे पहन लिया, जहाँ एक भी बडा आदमी नहीं है.

सच बताऊ, पहले तो बहुत ही गुस्सा आ रहा था कि उतार फैंकूं ऐसी दो कौडी की पतलून को जो हर कदम पर अपनी मौजूदगी का अहसास कराने इतनी आवाज़ कर रही है, मगर ठीक इसी मौके पर अकल ने काम किया. अपन को भी कौन साला बड़ा आदमी पार्टी में बुला रहा है जो इस पेंट को सम्हाल कर रखें . हर रोज़ घर मे पहन-पहन के साले को उसकी औकात न बता दें. बस इसी खुन्नस मे सुबह से वही वाला पेंट पहने बैठा हूँ . न उस दारी पेंट को चैन है और न मुझे. वह अब भी आवाज़ कर रही है और मै अब भी उसे सबक सिखाने की गरज़ से रगडे जा रहा हूँ . इस सच्चाई के बावजूद कि शायद पेन्ट से ज़्यादा मै‍ तकलीफ़ मे हूँ . पर जी हूँ तो हूँ ! मेरा भी टेसू यही अड़ा है. बाकी आगे जो होगा जी हम देखेंगे . आजकल वैसे भी कोई काम-वाम है नही. ज़माने मे किसी पर ज़ोर चलता नहीं है. सो सारी ज़ोर आज़माई इसी पेंट पर ही न कर देखूं . हो सकता है जगह-जगह हारते-हारते यहीं जीत जाऊं।

Friday, August 21, 2009

सीटी,शीशा और मैं

सीटी,शीशा और मैं

यह ज़िन्दगी बड़े मज़े की चीज़ है. कई बार बड़े और मुश्किल काम इतनी आसानी से हो जाते हैं कि उनके हो जाने के बाद हंसी आती है कि इस बात को कितना मुश्किल मान रहे थे. और कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई छोटा सा, मामूली सा लगता काम जिसे आपकी नज़रों के सामने एक बच्चा भी कर जाता है पर क्या मजाल जो आप से हो जाए. आप बस मन मसोस कर रह जाते हैं. आखिर और कर भी क्या सकते हैं.

अभी कुछ दिन पहले मैने एक टीवी शो में प्रसिद्ध फिल्मकार महेश भट्ट को सीटी बजाते देखा तो मेरे दिल पे छुरियां चल गईं. हाय ! कितनी उम्र हो गई और अब तक सीटी नहीं बजा पाता और ये हैं कि इस उमर में भी सीटी बजा लेते हैं. आप ज़रा मेरी तक़लीफ की कल्पना करें. सिनेमा घर,सड़क के गीत-संगीत के कार्यक्रम और कालेज के कई मौकों पर सारे दोस्त एक से एक लाजवाब सीटीयां बजाते रहे और मैं (बेचारा) लुटा-पिटा सा,लाचार खड़ा झूठी मुस्कराहट दिखाकर उन्हें घूरता रहता.

अब आपसे क्या छुपाना. न जाने कितनी बार घर में कमरे की सांकल लगाकर,शीशे के सामने खड़े होकर, दोस्तों की नकल करते हुए मुंह में उंगली डालकर न जाने कितनी बार कोशिश की मगर सिवाय एक बदनसीब फू-फू की खोखली आवाज़ के कुछ न हुआ. कई बार जले पर नमक तब पड़ जाता जब बाहर निकलते ही मोहल्ले में या सड़क पर कोई छोटा सा बच्चा आसमान की उड़ान लेती सीटी बजा मारता. ‘पलट तेरा ध्यान किधर है, भाई’. इस एक कमज़ोरी की वजह से भरी जवानी में भी न जाने कहां-कहां रक़ीबों से मात खाई और आज तक उस उम्र के ज़ख्मों को सहलाता बैठा हू.

मेरी इस बात का इस उम्र के नौजवान (मतलब जो नए-नए जवान हुए है. या कहूं जो मेरे बाद जवान हुए हैं) कभी ठीक से अर्थ न जान पाएंगे. वजह साफ है. जब खलील मियां जवान हुए थे तब इस मुई सीटी की अहमियत ज़्यादा ही थी. अब जैसे उस दौर में बच्चे मां-बाप के काबू कुछ ज़्यादा ही रहते थे. मतलब कहीं आना-जाना आसान न था. और अगर आप गलती से दोस्त को कहीं ले जाने के लिए, खासकर फिल्म देखने के लिए, उसके घर पहुंच गए तो दोस्त के मां-बाप से डांट तो खाना ही है. बस ऐसे ही मौकों पर सीटी बजा सकने वाले दोस्त साफ बच जाते थे. पहले से सेटिंग रहती थी. ‘खिड़की के नीचे से एक सीटी मारूंगा. नीचे आ जाना’. लीजिए, हो गया काम. मां-बाप की मौजूदगी में बिना डांट खाए, आपका काम चल गया.

फिल्म देखने के दौरान भी न जाने कितने मौके आते थे जब किसी सीन पर चारों ओर से सीटियां बजती रहती थीं, और मैं चाहकर भी एक सीटी नही बजा पाता था. पाता था का क्या मतलब, अब भी नहीं बजा पाता. नहीं बजा पा रहा हूं इसीलिए अपना दुखड़ा लेकर आपके सामने बैठा हूं.

इस दुखड़े में एक दुख और भी सुना देता हूं. मेरे मोहल्ले में मेरा एक दोस्त कमाल का सीटीबाज़ था. वो तो सीटी में ही पूरे के पूरे गाने निकाल लेता था. नतीजा यह होता कि मैं जिनकी तवज्जो की चाह में जीता था उन सबकी प्रशंसा से भरी निगाहें मेरे उसी दोस्त पर टिकी रहतीं. मैने कई बार कोशिश की कि मेरा दोस्त मुझे भी यह हुनर सिखा दे. सोचता था कि इसमें सिर्फ मुंह ही तो गोल करना है. उंगली मुंह में डालने वाला काम तो इसमे है नहीं. मगर नतीजा वही. मेरे गोल मुंह वाली सीटी से गाना तो क्या निकलता बस दोस्त का मनोरंजन खूब होता रहता और मैं मुंह गोल किए-किए कुड़्कुड़ाता रहता.

मुझे सीटी बजानी भले न आती हो मगर एक बात बताऊं मुझमें एक अछी बात है. मैं हार कभी नहीं मानता. मैं तकरीबन एक हज़ार ऐसे काम कर चुका हूं जो मुझे नहीं आते थे. न तब आते थे और न अब आते हैं. मगर काम ऐसे ही करता हूं जो नहीं आते.

अब एक राज़ की बात बताऊं. अभी कुछ दिन पहले ही मैने इंटरनेट की मदद से सीटी बजाने के कुछ सबक डाऊनलोड किये हैं. कमरे में एक आदमकद शीशा लगा लिया है. प्रैक्टिस जारी है. अब तक फू-फू से फ्यू-फ्यू तक पहुंचा हूं. कोई ताजुब नहीं किसी दिन सचमुच सीटी बज जाए. जिस दिन बज गई, उसी दिन सिनेमा घर जाऊंगा. किसी दोस्त के घर जाकर खिड़की के नीचे अब तक न बजी सीटी बजाऊंगा. शायद न भी बजाऊं. इस नए दौर में दोस्त की सीटी सुनकर दौड़ आने वाले दोस्त बचे कहां हैं. कम से कम मेरे तो नहीं हैं.
(दैनिक भास्कर के रविवारीय ‘रसरंग’ में पूर्व प्रकाशित)

Wednesday, August 19, 2009

सत्यकाम

‘सत्यकाम’ तुझे सलाम

एक ऐसे समय में जब सच और झूठ को लेकर झगड़े होना लगातार कम होते जा रहे हैं, मैं सच की बात करना चाहता हूं. सीधे-सीधे कहूं तो मैं कोई 40 साल पुरानी फिल्म ‘सत्यकाम’ (1969) की बात करने जा रहा हूं. और इस बात की शुरूआत मैं उसी कहानी से करूंगा जिससे इस फिल्म की शुरूआत होती है.

सत्यकाम ने गुरू गौतम के पास जाकर कहा : भगवन मुझे अपना शिष्य बनाइये.
गुरू गौतम ने पूछा : तुम्हारा गोत्र क्या है ?
सत्यकाम ने कहा : मां से मैने पूछा था. मां ने कहा बहुतों की सेवा करके तुम्हे पाया. इसलिए तुम्हारे पिता का नाम मैं नहीं जानती. लेकिन मेरा नाम जबाला है इसलिए तुम्हारा नाम जबाल सत्यकाम है. यही कह.
ऋषि गौतम ने सत्यकाम का सर चूमकर कहा : तुम्ही श्रेष्ठ बृह्मण हो. क्योंकि तुममे सत्य बोलने का साहस है.

तो मित्रों, यह थी वह पौराणिक कहानी जिसके साथ इस फिल्म की शुरूआत होती है. मगर सच तो यह है कि मेरे अन्दर आज तक न तो यह कहानी खत्म हुई है और न यह फिल्म. मैं खुद भले ही न सत्यकाम सा सत्यवादी बन पाया और न ही फिल्म के नायक सत्यप्रिय आचार्य जैसा महान आदर्शवादी, मगर वैसा हो पाने की ललक ज़रूर रही है. आज भी है. मैं जानता हूं मेरी तरह के असफल लोगों की एक बड़ी तादाद है. सो आज की बात उन सब के नाम.
सत्यप्रिय आचार्य यानि धर्मेन्द्र इंजीनियरिंग का छात्र है. वह एक ऐसे परिवार से आता है जिसमें पीढ़ियों से सत्य,धर्म और शुद्ध आचरण के प्रति घनघोर समर्पण है. पिता तो परिवार छोड़कर सन्यासी भी बन गए और ऋषिनुमा दादा के सानिध्य में बचपन गुज़रा है. सत्यप्रिय का सत्य के प्रति आग्रह और आचरण की शुद्धता दीवानगी की हद तक है. संजीव कुमार यानि नरेन उसका सहपाठी और सबसे नज़दीकी दोस्त है.

जिन लोगों को हमारे भ्रष्ट तंत्र की जानकारी है वे बखूबी जानते हैं कि इंजीनियर होने का अर्थ सबकी नज़रों में मलाईदार ओहदा है. राजनैतिक भ्रष्टाचार के भागीदार बनने को लालायित कुछ लोगों ने सारी कौम पर ऐसा लेबल चस्पा किया है कि हटाए नहीं हटता. जो इस लेबल से मुक्त होकर जीने की कोशिश करता है वह उसकी कीमत इस या उस रूप में ज़रूर चुकाता है. क्या उत्तर प्रदेश के ताज़ा इंजीनियर हत्याकाण्ड को भूल गए जिसने नेताओं को चन्दा देने से इंकार कर दिया था ? वही. लगभग वही हश्र इस सत्यप्रिय आचार्य का भी फिल्म में होता है. वह आखिर लड़ते-भिड़ते कैंसर का शिकार हो जाता है. शायद कथा लेखक नारायण सान्याल और निदेशक हृषिकेश मुखर्जी प्रतीक रूप में कहना चाहते थे कि भ्रष्टाचार बहुत बड़ा कैंसर है जो ईमान को खा जाता है.

पूरी कहानी विस्तार से तो नहीं सुनाना चाहता, आप सब खूब जानते हैं कि सत्यप्रिय जैसे लोगों की समाज में क्या दुर्दशा होती है और कैसे होती है. बात को ज़रा सलीके से आगे बड़ाने के लिए इतना भर ज़रूर बताऊंगा कि सत्यप्रिय ने अपने इसी नैतिक दबाव के तहत रंजना (शर्मिला टैगोर) से शादी की जबकि वह एक ठेकेदार की हवस का शिकार होकर गर्भवती हो चुकी थी. इसका कारण यह था कि उसने रंजना को उस समय ठेकेदार से बचाने की कोशिश नहीं की. शादी के बाद उसने रंजना, जो कि एक वैश्या की संतान है, न सिर्फ पत्नि का दर्जा दिया बल्कि उसके बेटे को भी अपना नाम दिया, वह भी बिना किसी अपेक्षा के.

फिल्म के अंत में दो बातें बड़ी खूबसूरती से दिखाई गई हैं. पहली तो यह कि वह ठेकेदार जिसने सत्यप्रिय के कारण पहले बहुत घाटा उठाया और फिर उसका तबादला करवा दिया, वही ठेकेदार आखिर में उसकी बीमारी में सबसे बड़ा सहारा बनकर खड़ा हो जाता है. कम से कम मैं इस बात को मानता हूं कि इंसान हरदम शैतान नहीं होता.
दूसरी बात फिल्म के अंत में सत्यप्रिय की मृत्यु के बाद की है. दादा (अशोक कुमार) जिसने इस विवाह और इस बच्चे को कभी स्वीकार नहीं किया, वह आखिर में एक सत्यकामनुमा सच के आगे नतमसत्क हो जाता है. क्योंकि वह बच्चा सार्वजनिक रूप से सामने आकर उनसे कहता है कि उसे पिता के संस्कार कर्म से वे इसलिए दूर रखना चाहते हैं क्योंकि वह उनके पोते का बेटा नहीं है. हैरतज़दा दादाजी अपने भगवा वस्त्रों और लहराती सफेद दाढ़ी में बेचैन होते पूछते हैं कि आखिर इतने छोटे से बच्चे को इतना कड़वा सच किसने बताया. ‘मां ने’. हर युग में मां जबाला और सत्यकाम तो होते ही रहेंगे फिर चाहे दुनिया भले ही उनको उनके सत्य रूप में पहचान न पाए.

...तुसी ग्रेट हो जी

इस फिल्म को देखकर बहुत परेशान हो जाता हूं मगर जी चाहता है कि ऐसी परेशानी को बार-बार सीने से लगा लूं ताकि जितना कुछ बच पाया है कम से कम वही बचा रह जाए. इस फिल्म से जुड़ा हर इंसान इतनी बलन्दी पे नज़र आता है कि बार-बार सजदे में झुकने को जी चाहता है. धर्मेन्द्र की तो मेरे हिसाब से यह ज़िन्दगी की बेहतरीन अदाकारी है. हृशिकेश मुखर्जी भी इसे अपने सबसे बेहतर काम में ही गिनेंगे लेकिन मैं इस जगह फिल्म के संवाद लेखक राजेन्द्र सिंह बेदी को सलाम करना चाहता हूं. वाह! क्या खूब संवाद लिखे हैं. ऐसा लगता है मानो हमारे समाज की पूरी की पूरी निर्लजता को खेंचकर चौराहे पर खड़ा कर दिया है कि लीजिए कीजिए अब इनका हिसाब. इसी के साथ यह भरोसा भी दिलाया है कि इंसान अभी भी भरोसे के क़ाबिल हो सकता है.

अब ज़रा इस एक मंज़र के संवाद देखें. ठेकेदार सप्रू , इंजीनियर सत्यप्रिय आचार्य से एक ऐसे नक्शे पर दस्तखत चाहता है जो उसने नहीं बनाया. इंकार पर एक ब्लैंक चेक़ देता है जिसे सत्यप्रिय रिश्वत कहकर ठुकराता है. इस पर सप्रू का संवाद है : ‘आप इसे रिश्वत कहते हैं. हुं ! इसके भी भगवान कृष्ण की तरह 108 नाम हैं, आचार्य साहब. दिल्ली में इसे दस्तूरी कहते है. बिहार में .....बंगाल में इसे बड़ी खुशी से कहते हैं पान खाने के दिए. तमिल और तेलगू में इस सुन्दरी को क्या कहते हैं मैं नहीं जानता. क्योंकि आप सचाई के पुतले हैं तो आपकी सहूलियत के लिए मैं इसका नाम आनरेरियम रखे देता हूं. लीजिये’.

धरम पा जी चेक फाड़ देते हैं. ‘...राय साहब, तमिल और तेलगू में तो इसका नाम मैं भी नहीं जानता मगर हर भाषा में इसका जवाब यही है’.

दूसरी जगह दूसरे ठेकेदार से विवाद होता है और हमारा हीरो फिर अपनी ठसक के साथ सच के पक्ष में खड़ा हो जाता है. उसके जाने के बाद ठेकेदार अपने मुनीमनुमा मुसाहिब से कहता है : ‘हर आदमी की अपनी-अपनी कीमत होती है’.
‘बहुत ही मुश्किल है सर! सुना है यह आदमी बहुत ही बदमाश और एक नम्बर का पाजी है. रिश्वत वगैरह नहीं खाता सर’.

संजीव कुमार अर्थात नरेन इस फिल्म के सूत्रधार भी हैं. एक जगह वो अपने अज़ीज़ दोस्त सत (धर्मेन्द्र) के बारे में कहता है ‘...ऐसा लगता था मानो उसका झगड़ा दुनिया से ही नहीं, खुद से भी है.’

क्या पते की बात की है. ऐसे लोगों का झगड़ा अक्सर बाहर वालों से ज़्यादा खुद से होता है. होता ही रहता है. और बस होता ही रहता है. और यह सच सिर्फ समझने वालों की ही समझ में आता है. या कहूं राजेन्द्र सिंह बेदी जैसे संवेदना वाले इंसानो की ही समझ में आता है.

और क्यों न हो. जो जैसा है, जहां है को स्वीकार करने वालों के बहुमत वाली इस काली दुनिया में उन्ही लोगों की मौजूदगी से उजाला है जो न्याय और अन्याय को ठीक से पहचानते हैं और न्याय के पक्ष में खुलम-खुला खड़े होकर सच बोल सकते हैं.

इस स्थिति पर सत्यप्रिय का एक संवाद आता है. “...मैं इंसान हूं. भगवान की सबसे बड़ी सृष्टि. मैं उसका प्रतिनिधि हूं. किसी अन्याय के साथ कभी सुलह नहीं करूंगा. कभी नहीं करूंगा’.

और...
जाते-जाते इस महान फिल्म के गीत संगीत की याद कर लूं. कैफी आज़मी साहब के गीत और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत. लता की आवाज़ में एक हसीन गीत है : ‘अभी क्या सुनोगे, सुना तो हंसोगे, कि है गीत अधूरा, तराना अधूरा’. मगर हंसी-हंसी में ज़िन्दगी की हंसी उड़ाता गीत है- ‘ज़िन्दगी है क्या, बोलो ज़िन्दगी है क्या’. जवाब में कोई इसे मोटर कहता है, कोई लट्टू. किसी ने कहा लस्सी, तो किसी ने इसे लड़की बयान किया. मुझे चरखा और बन्दर वाले जवाब ज़्यादा पसन्द हैं.

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