उस गली में
मुस्कराता है एक बच्चा
हर शाम
निकलता हूं जब मैं
अपने काम पर
उसकी मुस्कान
मुझे दे देती है पंख
और मैं
उड़ता-उड़ता
अपनी पूरी ऊर्जा और वेग के साथ
पहुंच जाता हूं वहां
जहां लगी हैं कैंचियां
चारों तरफ
पर कतरने के लिए
हर रात
लौट आता हूं
रेंगता-रेंगता
अपने कटे हुए परों के साथ
उसी गली में
जहां मेरा घर है
और जहां
मुस्कराता है एक बच्चा
हर शाम
मुझे पंख देने के लिए
( 2006 में प्रकाशित कविता संग्रह ‘बाकी बचें जो’ से )
अच्छी कविता केसवानी जी. आपसे आकाशवाणी लखनऊ के कविता पाठ कार्यक्रम में मिल चुकी हूँ आज ब्लॉग जगत में भी भेंट हो गई. अच्छा लगा.
ReplyDeleteशुभकामनाएँ,
मीनू खरे,
कार्यक्रम अधिशासी,
आकाशवाणी लखनऊ.
बहुत सशक्त कविता.
ReplyDeleteरामराम.
लाजवाब रचना है केसवानी जी...आपकी कवितायेँ पढने का मौका मिला...आपका संगीत ज्ञान तो जग विदित है लेकिन कविता क्षेत्र में आपका लेखन भी उतना ही श्रेष्ठ है...इसे कहते हैं विलक्षण प्रतिभा...
ReplyDeleteनीरज
केसवानी जी अच्छी रचना !
ReplyDeleteबधाई
दुनिया की दुरंगी चालों और दिन प्रतिदिन किये जाने वाले संघर्ष को बच्चों जैसी सहजता और सरलता से ही जीता जा सकता है ...फिर तो मन के किसी कोने में छिपे बच्चे का रोज एक नया पंख देना सार्थक ही हुआ ना ..
ReplyDeleteबहुत शुभकामनायें ..!!
Keswani ji,
ReplyDeleteThough I am not very well conversant with Poetry, but the wordings of this poem describes the pathetic feeling of the poet which you have beutifully brought down in black and white.
Note-- Keswani ji I do not know Hindi typing that's why I am writing in english. Pl excuse me.
Regards
R.P.Asthana
Gwalior
बहुत जीवंत कविता के लिए बधाई...............अगर यह बच्चा हम सब को हर शाम पँख न दे तो कैसे बच पाएँगे हम ? यही जिजीविषा है....
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