Saturday, October 3, 2009

आलों में लुप्त ज़िन्दगियों का भान : नवीन सागर


मैं अक्सर सोचता हूं एक कहानी लिखूं, जिसका नाम हो - नवीन सागर. एक कविता लिखूं, जिसका शीर्षक हो नवीन सागर. एक आवाज़ दूं नवीन !


अब तक यह कहानी नहीं लिखी. न ही यह कविता लिखी है और न ही पिछले नौ साल से यह आवाज़ दी है नवीन ! .


डर लगता है - वह कहानी नहीं पड़ेगा. डरता हूं वह कविता भी नहीं सुनेगा. आवाज़ तो बिल्कुल नहीं दूंगा. अगर जवाब में फिर वही जुमला सुनाई दे गया आ जा बे अन्दर आ जा तो क्या करूंगा ? मैं तो उस जगह का दरवाज़ा ही नहीं जानता जहां वो जा बैठा है. तब क्या करूंगा ? बेहतर है दिल की दिल में रखूं. वह तो हमेशा दावा करता था कि मेरे दिल की सारी बातें समझ जाता है. सो अब भी तो समझता होगा.


नवीन अदभुत कहानीकार था. विलक्षण कवि. अनोखा पेंटर. यह सब न भी कहता तो भी उसकी कविता सब कुछ कह जाती. वह सब भी जो मैं अब भी नहीं कह पा रहा हूं.


1. अच्छी सरकार


यह बहुत अच्छी सरकार है

इसके एक हाथ में सितार दूसरे में हथियार है

सितार बजाने और हथियार चलाने में

तजुर्बेकार है

.

इसका निशाना अचूक है

कानून की एड़ियों वाले जूते पहनकर

सड़क पर निशाना साधे खड़ी है

उसी सड़क से होकर मुझे

एक हत्या की गवाही के लिए जाना है .


मुझसे पहले

दरवाज़ा खोलकर मेरा इरादा

बाहर निकला

तुरंत गोली से मर कर गिरा .


मैने दरवाज़े से झांककर कहा

मुझे नहीं पता यह किसका इरादा रहा

इस तरह

मैं एक अच्छा नागरिक बना

फिर मैने झूम-झूम कर सितार सुना .


2. इस घर में


इस घर में घर से ज़्यादा धुआं

अन्धेरे से ज़्यादा अन्धेरा

दीवार से बड़ी दरार.


इस घर में मर्तबा बहुत

जिसमें से सांस लेने की आवाज़ लगातार

आलों में लुप्त ज़िन्दगियों का भान

चीज़ों में थकान.


इस घर में सब बेघर

इस घर में भटके हुए मेले

मकड़ी के जालो से लिपटे हुए

इस घर में

झुलसे हुए रंगों के धब्बे

सपनों की गर्द पर बच्चों की उंगलियों के निशान .


इस घर में नींद से बहुत लम्बी रात.


3. देना !


जिसने मेरा घर जलाया

उसे इतना बड़ा घर

देना कि बाहर निकलने को चले

पर निकल न पाये .


जिसने मुझे मारा

उसे सब देना

मृत्यु न देना .

जिसने मेरी रोटी छीनी

उसे रोटियों के समुद्र में फेंकना

और तूफान उठाना .


जिनसे मैं नहीं मिला

उनसे मिलवाना

मुझे इतनी दूर छोड़ आना

कि बराबर संसार में आता रहूं .


अगली बार

इतना प्रेम देना

कि कह सकूं : प्रेम करता हूं

और वह मेरे सामने हो .


(नवीन सागर २९.११.४८ - १४.०४.२०००)

7 comments:

  1. Blog par Naveenji kee kavitayen dekhna bahut sukhad hai, antim kavita shayad hindi kee sabse achchhee kuchh kavitaon mein se hai.Shukriya. Pratilipi par maine unki kavita par likha hai. mere liye yah bahut sukoon kee baat hai ki unke donon postumous collections mere shahar se mere doston kee koshishon se chhape hai. groupist aur seemit mahantaon ke beech naveen ke doosre sangrah kee kavitayen kisi aur nakshatra par likhi hui lagtee hain.

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  2. keswani ji navin sagar ki kavitayen adbhut hai.
    apane unhe yaad kiya bahut achchha laga.
    maine apane ek blog ka naam ni unaki kavita 'main santur nahin bajata' par rakha hai.bahut bahut dhanywaad.

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  3. कथादेश में उनकी कविताएँ पढी थीं. अब ब्लॉग पर भी पाकर अच्छा लगा.

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  4. नवीन जी पर रामकुमार तिवारी के संपादन में कथादेश ने तो बजाप्ता एक अंक निकाला था. बाद में http://raviwar.com पर भी उनकी बहुत सारी सामग्री पढ़ने को मिली. अफसोस है कि नवीन भाई को हिंदी की राजनीतिक चांडाल चौकड़ी ने दृश्य से गायब करने की लगातार कोशिशें की और यह अब तक जारी है. आपने यह कविता पढ़ कर उपकार किया है.
    संतोष जैन
    331, न्यू पाटलीपुत्रा कालोनी, बोरिंग कैनाल रोड, पटना.

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  5. मित्र रामकुमार तिवारी जब भी घर आते हैं हम लोग नवीन जी के बारे में बात करते है , उनकी कवितायें पढते हैं । आज इस ब्लॉग पर आपके द्वारा उनका स्मरण देख कर लगा वे अभी भी हम लोगों के बीच कहीं जीवित हैं । -शरद कोकास ,दुर्ग छ.ग.

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  6. बहुत "बड़ी" कविताएँ हैं ये.

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  7. केसवानी सर, यहाँ से दो कविताएँ और अन्यत्र से कुछ मैटर लेकर असुविधा पर एक पोस्ट लिखी है. आभारी हूँ

    http://asuvidha.blogspot.in/2012/04/blog-post.html

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