पिछले महीने एक कार्यक्रम के सिलसिले में जबलपुर जाना हुआ. प्रसिद्ध रंगकर्मी मित्र अरुण पाण्डेय का भी साथ रहा. उन्होने एक बहुत ही बहुमूल्य चीज़ दी – शशिन की स्मृति में बरसों पहले प्रकाशित एक पुस्तिका. इस पुस्तक में शशिन के कुछ छाया चित्र, कविताएं हैं, संस्मरण हैं.
मैने अब तक शशिन का नाम भर सुना था. उसके कुछ चित्र सारिका में देखे थे. खासकर अक्टूबर 1969 का अंक जिसमें सारे रंगीन और सादे फोटो शशिन के ही थे. इससे ज़्यादा कुछ नहीं जानता था. इस पुस्तिका को पढ़ना शुरू किया तो लगा मैं एक बहुत ही खूबसूरत इंसान को जानने से महरूम रहा हूं. जितने सुन्दर ब्लैक एंड व्हाईट चित्र हैं उतनी ही सुन्दर कविताएं.
एक चित्र मैने भी इस पुस्तक को पढ़कर बनाया है. शशिन का चित्र. वह फिलहाल मेरे ज़हन में है. ज्यों-ज्यों इस पुस्तिका के पन्ने पलटता हूं, त्यों-त्यों इस चित्र के रंग और निखरने लगते हैं. जिस दिन यह तस्वीर पूरी हुई उस दिन उसे सबको दिखाऊंगा. फिलहाल तो हरिशंकर परसाई के शब्दों का ही सहारा ले रहा हूं.
“...‘प्रहरी’ दफ्तर में ही एक दिन शशिन से मेरा परिचय कराया गया – शशिन यादव उभरते हुए कलाकार. शशिन ने तब किशोरावस्था पार ही की थी – दाढ़ी के कुछ ही बाल आये थे. सिर पर लम्बे चमकीले घुंघराले केश, बड़ी-बड़ी भावुक और प्रखर आंखें. शशिन तब बात करते, उठते-बैठते, चित्राकंन करते, सीढ़ियां उतरते गुनगुनाते रहते थे. यह आदत शशिन में अंत तक बनी रही, गुनगुनाते रहना. वे जब बड़े चित्रकार हो गये तब भी मैं देखता – कैमरा जमाते, फोकस ठीक करते, भारी स्टाक में निगेटिव निकालते शशिन गुनगुनाते ही रहते. यहां तक होता कि बात करते-करते शशिन बेध्यान होकर गुनगुनाने लगते और सामने वाले को लगता कि मैं तो बात कर रहा हूं और वह अपने में डूबकर गा रहा है. संगीत का यह स्रोत शशिन में निरंतर झरता था और तब लगता था कि यह युवक संगीतज्ञ ही बनेगा”.
मगर शशिन अपनी इस गुनगुनाहट के साथ काम में इस क़दर डूबा रहा कि उसे यह भी पता न चल सका कि कब मौत आकर उसके दरवाज़े ठहर गई. 18 जून 1976 के दिन जब उसकी मृत्यु हुई उस समय उसकी उम्र कुल 47 साल की थी.
सब कुछ तो नहीं, बस दो कविताए और शशिन का एक फोटो है, जिस पर लिखा है - मैं चाहता हूँ / लोग मेरे चित्रों से पूछें शशिन कौन है।
1.
मैं नहीं चाहता कि
तुम सपना बनो
मैं नहीं चाहता कि
मैं भी सपना बनूं
सत्य मैं हूं सत्य रहूं
सत्य तू है सत्य रहे
तेरे दुखों से मैं संवेदित होऊं
और मेरी व्यथा को
तुम समझो
इतना कुछ
कर लेंगे हम
तो अच्छा होगा
2.
आबज़रवेटरी
सात हज़ार छै: सौ अठयासी फुट ऊंची
रोमनों के टोपों से बने कुछ
गुंबजों से घिरी
आबज़रवेटरी ?
जी हां
जहां से ऊंचे, बहुत ऊंचे,
उस आसमां में फैले
सितारों की दुनिया में
आदमी
जबसे झांकना सीखा है
तो पर्वतों की चोटियों पर
बादलों से भी ऊंचे
आबज़रवेटरी बना कर
उसने ऊपर ही ऊपर देखना जाना है
ज़मीं की सारी बातें
जैसे वह भूल सा गया है
शशिन
shashin kaun hain ?
ReplyDeleteसत्य हूँ सत्य रहू ...पर आखिर सपना बन ही गया ...विधि का विधान ..!!
ReplyDeleteसर आपका ब्लॉग पर कूदना दिल को भा गया.. कब से सोच रहा था किस तरह आपको कहूँ कि ब्लॉग बनाइये..
ReplyDeleteएक अदद मोबाइल नंबर आपने कभी रसरंग में दिया था.. वो भी चला गया..
बाजे वाली गली.. नाम तो मस्त है
अब तो आना जाना लगा रहेगा.. जय जय
शशिन की ओब्सर्वेटरी का तो पता नहीं, पर आपकी उन्हें यह श्रद्धांजलि प्रभावी है!
ReplyDeleteशशिन जैसे डूब कर काम करने वाले कम ही होते हैं. अब सबसे पहले तो अपका ब्लौगजगत में स्वागत-अभिनंदन. कितनी बार आपका मेल एड्रेस भास्कर से लिया, और आपसे सम्वाद कायम करने की इच्छा की....लेकिन होई है सोई जो राम रचि राखा....मिलना तो ब्लौग के माध्यम से था, मेल के ज़रिये कैसे मिलते?
ReplyDeleteशशिन जैसे लोग इतनी कम उम्र क्यों दुनिया में बिताते है .भगवान का ये हिसाब किताब अपनी समझ में कम आता है ....कही तो कोई हिसाब गलत रख रहा है..
ReplyDeleteराजकुमार जी, रवि रतलामी जी के ब्लौग पर पढ़ा देखा तो फ़ौरन दौड़कर आ गया. मुझे नहीं मालूम की कितने लोग आपका ब्लौग पढ़ते हैं पर यदि गिनती वाकई दस हुई तो मैं उनमें शामिल मिलूंगा. पढता हर बार हूँ, कमेन्ट करने में आलस करता हूँ, क्या करूँ, इतना लिखते हैं लोग, एक दिन में आनेवाली सारी अच्छी पोस्टें पढना भी अब मुश्किल होता जा रहा है.
ReplyDeleteहमेशा की तरह, उम्दा पोस्ट. शशिन की सुन्दर कवितायेँ.
इसी तरह हमें नायाब पोस्टें पढाते रहें.
स्वागत इधर एक बार फ़िर से। रविरतलामी से बातचीत के जरिय हम इधर पहुंचे। आशा है आप् नियमित लिखेंगे। हम आपको मियमित बांचेंगे।
ReplyDeleteशशिन से परिचित करवाने के लिए धन्यवाद !
ReplyDeleteएक प्रतिभाशाली कवि का इतनी छोटी उम्र में जाना दुखदयी लगा । उनकी दोनों कविताएँ दिल को छू गई ।
आपका ब्लॉग सुंदर लगा, इस बाजे वाली गली में अब तो आना-जाना लगा रहेगा ।
शशिन के बारे मे सुना था ,शायद अरुण भाई या हिमांशु भाई ने ज़िक्र किया था , आज आपके ब्लॉग पर यह पढ़कर याद आ गया । क्या कहें ऐसे लोग जल्दी क्यों चले जाते हैं शरद कोकास ,दुर्ग छ.ग.
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