Monday, May 17, 2010

ज़माना गुज़रा है अपना ख़याल आए हुए

मैं अपनी हज़ार चीज़ों से ख़फा हूं - अपनी सूरत से. अपनी आदतों से. अपने अलालपन से. अपने सपनों से.

लोग कहते हैं इंसान के भेजे में भेजा होता है। मुझे लगता है मेरे भेजे में सिर्फ कबाड़खाना है. किसी भगोड़े फिल्मकार का कबाड़खाना. एक ऐसा फिल्मकार जिसने ज़िन्दगी के न जाने कितने लम्हों को अलग-अलग वक्तों के दौरान कभी इंसानी शक्लों में तो कभी ग़ैर-इंसानी शक्लों में अपनी रील पर उतार लिया और इस कबाड़खाने में डम्प कर दिया है.

सोचता हूं अगर अछा कवि होता तो इन फिल्मों को सुन्दर कविताओं में बदल लेता। अछा कथाकार होता तो कम से कम एक ख़ूबसूरत कहानी ही बना लेता. एक अछा एडीटर होता तो इस कबाड़े की फिल्मों में से कुछ मंज़र जोड़कर पहले न बनी एक फिल्म जैसी कोई फिल्म बना लेता.

गर यूं होता तो क्या होता ?

मैं तो कहता हूं जो होता तो क्यों होता ? आखिर मुझे पता ही क्या है कि क्या हो रहा है। मतलब ख़ुद अपने बारे में भी नहीं कह सकता कि क्या हो रहा है. बाहर की तो मैं जानता हूं अन्दर की मुझे क्या ख़बर।