Wednesday, September 30, 2009

‘मतवाला’ कैसे निकला

अब से कोई 77 बरस पहले मुंशी प्रेमचन्द के ‘हंस’ का आत्मकथा अंक प्रकाशित हुआ था. हिन्दी साहित्य में इस अंक का अपना एक मह्त्वपूर्ण स्थान है. इस अंक में जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द,शिवरानी देवी,मुंशी अजमेरी, शिवपूजन सहाय सहित उस दौर की तमाम विभूतियों ने अपने जीवन और साहित्य से जुड़ी कुछ खूबसूरत बातें समाहित हैं.

यूं तो कमोबेश हर आलेख बहुत सुन्दर है लेकिन बाबू शिवपूजन सहाय के आलेख में ‘मतवाला’ के प्रकाशन की कथा है. वह भी बहुत ही रोचक शैली में. सो आज उसी को बांचते हैं. बाकी आगे देखेंगे.

लीजिए. बांचिए.

‘मतवाला’ कैसे निकला

लेखक : श्रीयुत शिवपूजन सहायजी

‘हंस’ का यह ‘आत्मकथांक’ है. इसमे आत्मकथा ही लिखनी चाहिये. किंतु मेरी आत्मकथा. आरम्भ से आज तक, इतनी भयावनी है कि सचमुच यदि मैं ठीक-ठीक लिख दूं, तो बहुत से लोग विष खाकर सो रहें, या नहीं तो मेरे ऊपर इतने अधिक मान-हानि के दावे दायर हो जायें, कि मुझे देश छोड़कर भाग जाना पड़े. इसलिये मैं सब बातों को छिपाकर आत्मकथ नहीं लिखूंगा, और फिर मेरी आत्मकथा में कोई सीखने लायक सबक भी तो नहीं है. खैर, जाने दीजिये, ‘मतवाला’ की जन्म कथा, सक्षेप में, सुन लीजिये ; क्योंकि विस्तार करने पर फिर वही बात होगी.

सन 1920-21 में महात्मा गांधी के अहिंसात्मक असहयोग की आन्धी उठी. मैं जंगल के सूखे पत्ते की तरह उड़ चला. पहले ‘आरा’ नगर (बिहार) के टाऊन स्कूल में हिन्दी शिक्षक था, अब वहीं के नये राष्ट्रीय विद्यालय में हिन्दी शिक्षक हुआ. कुछ महीनों तक छोटी-मोटी लीडरी ही रही. बाद में आरा के दो मारवाड़ी युवकों – नवरंगलाल तुल्स्यान और हरद्वार प्रसाद जालान – के उत्साह से ‘मारवाड़ी सुधार’ नामक सचित्र मासिक-पत्र, मेरे ही सम्पादकत्व में निकला. उसको छपवाने के लिये मैं पहले पहल कलकत्ता गया. इसके बाद धनी मारवाड़ियों से सहायता लेने के लिये हाथरस,दिल्ली,इंदौर,जयपुर.बम्बई आदि अनेक बड़े नगरों में महीनों घूमता फिरा. किसी तरह दो साल ‘मारवाड़ी सुधार’ निकला. इसकी बड़ी लम्बी कहानी है.
‘मारवाड़ी सुधार’ का अंतिम अंक जब छप रहा था, तब मैं कलकत्ता में था. उस समय ‘बालकृष्ण प्रेस’ शंकरघोष लेन के मकान नं. 23 में था. वहीं मैं रहता था. प्रेस के मालिक बाबू महादेव प्रसाद सेठ और मुंशी नवजादिकलालजी श्रीवास्तव प्रेस में ही रहते थे. ऊपर वाले खंड मॆं रामकृष्ण मिशन के सन्यासी लोग थे, जिनके साथ पण्डित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ भी थे. ‘निराला’ जी रामकृष्ण कथामृत का अनुवाद और ‘समन्वय’ का सम्पादन करते थे. ‘समन्वय’ के संचालक स्वामी माधवानंद आचार्य द्विवेदीजी से मांगकर ‘निराला’ जी को वहां ले गये थे. और, मुंशी नवजादिकलालजी श्रीवास्तव उस समय ‘भूतनाथ तैल’ वाले प्रसिद्ध किशोरीलाल चौधरी की कोठी में मैनेजर थे. इसलिये अधिकतर चौधरीजी का ही काम प्रेस में होता था.

एक दिन मुन्शीजी बाज़ार से बंगला साप्ताहिक ‘अवतार’ खरीद लाये. वह हास्य-रस का पत्र था. शायद एक ही पैसा दाम था और शायद पहला ही अंक भी था ; किंतु उसी पर छपा था –

Guaranteed Circulation .0000000000001. मसाला भी मज़ेदार था. खूब पढ़ा गया. सोचावट होने लगी – इसी ढंग का एक पत्र हिन्दी में निकाला जाय. रोज़ हर घड़ी चर्चा छिड़ी ही रहती थी. कितने ही हवाई किले बने और कितने ही उड़ गये. बहुत मंथन के बाद विचारों में स्तम्भन आया. उसी दम बात तय हो गई. बीजारोपण हो गया. ता. 20 अगस्त 1923 रविवार को सिर्फ बात पक्की हुई. ता. 21 को मुंशीजी ने ही पत्र का नामकरण किया – ‘मतवाला’. मुन्शीजी को दिन-रात इसी की धुन थी. नाम को सबने पसन्द किया. अब कमिटी बैठी. विचार होने लगा – कौन क्या लिखेगा – पत्र में क्या रहेगा, इत्यादि. ‘निराला’ जी ने कविता और समालोचना का भार लिया. मुंशीजी ने व्यंग-विनोद लिखना स्वीकार किया. मैं चुप था. मुझमें आत्मविश्वास नहीं था. बैठा-बैठा सब सुन रहा था. सेठजी भंग का गोला जमाये सटक गुड़गुड़ा रहे थे. मुझसे बार-बार पूछ गया. डरते-डरते मैने कहा – मैं भी यथाशक्ति चेष्टा करूंगा. सेठजी ने कहा – आप लीडर (अग्रलेख) लिखियेगा, प्रूफ देखियेगा, जो कुछ घटेगा सो भरियेगा.

मैं दहल गया. दिल धड़कता था. मेरी अल्पज्ञता थरथराती थी. ईश्वर का भरोसा भी डगमगा रहा था. हड़कम्प समा गया. अथाह मंझधार में पड़ गया.

मुंशीजी और सेठजी तैयारी में लग गये. स्तम्भों के शीर्षक चुने गये. डिज़ाईन, ब्लाक, कागज, धड़ाधड़ प्रेस में आने लगे. चारू बाबू चित्रकार ने मुखपृष्ठ के लिये ‘नटराज’ का चित्र बनाया. देखकर सबकी तबीयत फड़क उठी. ‘निराला’ जी ने कविता तैयार कर ली, समालोचना भी लिख डाली. मुंशीजी भी रोज़ कुछ लिखते जाते थे. मैं हतबुद्धि-सा हो गया. कुछ सूझता ही न था. श्रावण की पूर्णिमा ता. 26 शनिवार को पड़ती थी. उस दिन ‘मतवाला’ का निकलना सर्वथा निश्चित था. युवती दुलहिन के बालक पति की तरह मेरा कलेजा धुकधुका रहा था.

ता. 23 बुधवार की रात को मैं लिखने बैठा. कई बार कई तरह से लिखा और फाड़ डाला. बहुत रात बीत गई. नींद भी नहीं आती थी. दिमाग चक्कर काट रहा था. मन, जहाज़ का पक्षी हो रहा था. यकायक एक शैली सूझ पड़ी. लिखने लगा. भाव टपकने लगे. धारा चली. मन तृप्त हो गया. अग्रलेख पूरा करके सो रहा. सुबह उठते ही सेठजी ने मांगा. तब डरते-डरते ही दिया ; किंतु ईश्वर ने लाज रख ली. सब ने पसन्द किया. शीर्षक था – ‘आत्म-परिचय’.

कुल मैटर प्रेस में जा चुका हा. उसका प्रूफ भी मैं देख चुका था. अब उत्साह बड़ने पर मैने भी कुछ ‘बहक’ और ‘चलती चक्की’ लिखी. श्रावणी संवत 1980 शनिवार (23 अगस्त 1923) को ‘मतवाला’ का पहला अंक निकल गया. था तो साप्ताहिक, मगर मासिक पत्र की तरह शुद्ध और स्वछ निकला. बाज़ार में आते ही, पहले ही दिन, धूम मच गई.

वहां सब लोग यू.पी. के निवासी थे, केवल मैं ही बिहारी था. इसलिये मेरी भाषा का संशोधन ‘निराला’ जी कर दिया करते थे. ‘मतवाला’ मण्डल में वही भाषा के आचार्य थे ; किंतु मुंशीजी अपनी लिखी किसी चीज़ में किसी को कलम लगाने नहीं देते थे. मुंशीजी पुराने अनुभवी थे, कई अखबारों में रह चुके थे, उर्दू-फारसी के अच्छे जानकार थे, हाथ मंजा हुआ था. सिर्फ मैं ही बुद्धू था. अनाड़ी था. नौ सिखुआ था. ‘निराला’ जी बड़े स्नेह के साथ मेरी लिखी चीज़ें देखते. संशोधन करते और परामर्श देते थे.उनसे मैने बहुत कुछ सीखा है. उनकी योग्यता का मैं कायल हूं. मुंशी जी का तो कहना ही क्या ! वह तो ‘मतवाला’ मण्डल के प्राण ही थे. उनकी बहक का मज़ा मैं प्रूफ में लेता था. उनकी मुहावरेदार चुलबुली भाषा ने ‘मतवाला’ का रंग जमा दिया. ‘निराला’ जी की कविताओं और समालोचनाओं ने भी हिन्दी-संसार में हलचल मचा दी. वह भी एक युग था. यदि उस युग की कथा विस्तार से कहूं, तो ‘बाढ़े कथा पार नहिं लहऊं’.

रोशनी किस जगह से काली है

फज़ल ताबिश नाम के इस ज़िन्दादिल इंसान को कभी कोई ‘उर्दू ज़ुबान का बांका शायर’ कहता है तो कोई ‘ख़ूबरू पठान और ख़ूबतर इंसान’. मुझे तो अब तक नहीं मालूम मैं उन्हें क्या कहूं. उनकी और मेरी उम्र में कोई 17 साल का फासला था मगर हमेशा बराबरी से दोस्तों का सा सुलूक करते रहे. फितरतन छेड़-छाड़ उनकी पहचान थी सो शायरी में भी सीधे-सीधे रिवायती शायरी की जगह नए ढब की शायरी करते थे. जो चीज़ें शायरी के दायरे से बाहर छूट जाती हैं उन्हीं पर उनका दिल आ जाता था.

अब ज़रा देखिए, कहते हैं कि –

रेशा-रेशा उधेड़कर देखो
रोशनी किस जगह से काली है

कहीं कहते हैं

मचलते पानी में ऊंचाई की तलाश फज़ूल
पहाड़ पर तो कोई भी नदी नहीं जाती

उनके कुछ शेर तो ऐसे हैं कि किसी वक़्त आपको लगे कि आपको ज़िन्दगी भर इसी तरह के किसी शेर की तलाश थी. मिसाल के तौर पर :

न कर शुमार कि हर शै गिनी नहीं जाती
ये ज़िन्दगी है हिसाबों से जी नहीं जाती

या फिर...
मैं किस-किस की आवाज़ पर दौड़ता
मुझे चौतरफ से पुकारा गया

***

वही दो चार चेहरे अजनबी से
उन्हीं को फिर से दोहराना पड़ेगा

***

चारो ओर खड़े हैं दुश्मन, बीचों-बीच अकेला मैं
जबसे मुझको खुशफहमी है, सब घटिया हैं, बड़िया मैं

***

छोटी-छोटी उम्मीदों पर लम्हा-लम्हा मरता हूं
जो जन्नत को तज आया था, उस आदम का बेटा हूं

***

जिस गुड़िया के दबने से सीटी बजने लगती है
’ताबिश’ उसके कदमों में क्यों ना अपना सर रख दूं

फज़ल भाई के बारे में उनकी शायरी के एक मजमूए में लिखा है ‘ ...पैदाइश 5 अगस्त 1933...53 मे क्लर्की...69 में एम.ए.(उर्दू) कर कालेज में लेक्चरर...80 से 91 तक मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी के सचिव...93 में रिटायर...’ और 95 में अलविदा.

वे शायर,कहानीकार,ड्रामा नवीस और उपन्यासकार थे यह दुनिया जानती है. वो ग़ज़ब यारबाज़ थे यह भोपाल और भोपाल को जानने वाला हर शख्स जानता है. दिन नौकरी और घर के लिए था तो रातें यार-दोस्तों के साथ ऐश के लिए. इसके बाद भी बहुत अनकहा रह जाएगा मगर इतना ज़रूर कहूंगा, कि अगर कोई यह मानता है कि ‘जिन लाहौर नहीं वेख्या, ओ जनम्या ही नहीं’ तो उसे यह भी मानना होगा ‘जो फज़ल भाई के घर ईद पर नहीं था, वो भोपाल में आया ही नहीं’.

Friday, September 25, 2009

रांगेय राघव की कविता

कुल 39 साल की उम्र आखिर कितनी होती है ? अधिकांश के लिए बहुत कम, मगर कुछ के लिए बहुत. खासकर उनके लिए जो हर दिन अपने होने को एक नए अर्थ में परिभाषित करने की क्षमता रखते हैं.


बहुत लड़कपन में एक लेखक से परिचय हुआ था एक किताब के ज़रिए पापी. एक रुपए में हिन्द पाकेट बूक्स की घरेलू लायब्रेरी योजना के तहत वी.पी.पी से आए पैकेट में. इसके बाद इस नाम के साथ कथा,उपन्यास,आलोचना, अनुवाद और न जने क्या-क्या देखा. ढेर हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेज़ी सहित कई सारी भाषाएं भी खूब जानते थे. और तो और शेक्सपीयर के नाटको तक का अनुवाद किया है.


अपनी आस्था से प्रतिबद्ध मार्क्सवादी रांगेय राघव के लेखन को ज़बर्दस्त जन स्वीकृति मिली मगर फिर भी साहित्य जगत ने कभी भी उनको उनका हक़ नहीं दिया. क़्यों ? यह एक पूरी बहस का विषय है, जिसे शुरू करना उदेश्य नहीं है.


इस विलक्षण प्रतिभा का जीवन मात्र 39 साल का था. 17 जनवरी 1923 को जन्म और 12 सितम्बर 1962 को निधन.


रांगेय राघव की यूं तो ढेर सारी किताबें मिलती हैं पर उनकी कविता की न तो चर्चा हुई है और न ही कोई ऐसा संग्रह दिखाई दिया है. मैं उनकी कविता की समीक्षा की गरज़ से नहीं बल्कि महज़ शेयर करने की दृष्टि से किसी वक़्त मेरे हाथ लगे 1947 में हिन्दुस्तानी एकेडेमी, संयुक्त प्रांत, इलाहाबाद से प्रकाशित उनके प्रबन्ध काव्य मेधावी से नमूने के तौर पर कुछ छोटे-छोटे टुकड़े हैं.


सर्ग -14

गहन कालिमा के पट ओढ़े

विकल विकल सी रात रो रही

दूर क्षीण तारों में कोई

टिमटिम करती बात हो रही


मैं चुपचाप देखता चलता

महानगर के राजमार्ग पर

जगमग विद्युत प्रखर दीप हैं

रह जाते हैं नयन चौंध कर


सजी सजी इन दूकानो में

रंग बिरंगी ज्योति हो रही

स्निग्ध पिपासा सी तन्द्रालस

करुण स्वरों को संभल ढो रही


स्निग्ध जगमगाती मोटर में

अंध दंभ से भर कर गर्वित

नर नारी जाते हैं हंसते

प्राणॉ तक धन मद से चर्चित



कहीं सैन्यबल की वह पगध्वनि

कंपित पृथ्वी को करती है

कहीं माध्यमिक पुलिस शक्ति ही

अर्थहीन शोषण करती है


भिन्न भिन्न हैं स्तर मानव की

सत्ता के जिसमे सब चलते हैं

एक मार्ग है जिस पर सब को

चलने के अधिकार न मिलते



पूंजीवादी मशीन नृत्य


चग़ चग़

चग़ चग़

से भरता है

अग जग

अग जग


उगल उगल हम

वस्तु निरंतर

पचा पचा कर

उठा उठा कर

कर देती है

प्रति पल सुन्दर


श्रमिक हमरा दास बना है

जिस पर स्वामी वर्ग तना है


धर्म हमारा दंड बना है

जलते वैभव

दीपक

जगमग

जगमग


दीपक के तल अंधकार है

वह मानव का अहंकार है

चिर असाम्य है लोलुप तृष्णा

घुमड़ रही है आंधी कृष्णा

उत्पादन

उत्पादन


लाभ लाभ की प्यास हमे है

कला

दार्शनिक

दास हमारे

सामंतीगण

हम पर निर्भर

हमे पड़ी क्या

कैसा भी हो

वह वितरण

वह वितरण


जो है जग में

वही सत्य है

वर्ग भेद ही

अंत गत्य है

निर्धन-पशु सा

अबल मर्त्य है

करले चाहे

आक्रंदन

आक्रंदन

चग़ चग़

चग़ चग़

***

Thursday, September 24, 2009

‘पीछे बंधे हैं हाथ मगर शर्त है सफर...’


न जाने कब से ताने सुन रहा हूं कि अपने भोपाली होने पर इतना ग़ुरूर रखते हुए भी अब तक भोपाल के लोगों की बात ही नहीं कर रहा. सचमुच. अपने लोग दिल के इतने क़रीब होते हैं कि उनके बारे में लिखने का ख्याल ही नहीं आता. खैर! जो कल तक नहीं किया वो आज किए लेते हैं.

चलिए, सोचिए. एक ऐसे परिचय वाले इंसान के बारे में सोच देखें कि वो क्या रहा होगा. ...सारा जीवन आर्थिक संघर्षों में बीता. वे निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे. पढाई-लिखाई न हो सकी. छोटी सी उम्र में ही भोपाल की सड़कों पर तांगा चलाने से अपना जीवन शुरू किया फिर होटलों में नौकरी की... .

अब अगर मैं कहूं कि यह शख़्स कमाल का इंसान और लाजवाब शायर था तो आपको मेरी बात पर यूं ही यकीन नहीं कर लेना चाहिए. खुद ही सुनकर देख न लीजिए कि मैं कितना सच बोल रहा हूं.

मैं चाहता हूं निज़ाम-ए-कुहन बदल डालूं

मगर ये बात फक़त मेरे बस की बात नहीं

उठो बढ़ो मेरी दुनिया के आम इंसानों

ये सब की बात है दो-चार दस की बात नहीं

इसे कहते हैं ताज भोपाली की शायरी. यानी शहर भोपाल के मोहम्मद अली ताज. 1926 में पैदा हुए और 12, अप्रेल 1978 तक बाकायदा जीते रहे और बहुतों को जिलाते रहे. कभी अपनी मोहब्बत से, कभी अपनी शायरी से और कभी-कभी अपनी बातों से. शक्लो-सूरत की परवाह उन्होने कभी नहीं की न किसी और ने. फिर भी उनका धुर काला रंग यूं दमकता रहता था मानो अभी-अभी कोई ग़ज़ल हुई है या शेर बना है जो बिना ज़ुबान पर आए ही चेहरे पर नुमाया हो गया है. उन्हें देखकर यक-ब-यक ग़ालिब का शेर याद आ जाता था बनाकर फक़ीरों का हम भेस ग़ालिब / तामाशा-ए-अहले-करम देखते हैं.

अपनी इस फक़ीराना तबियत से उन्हें इस क़दर आशनाई थी कि जब 60 के दशक में उन्हें अशोक कुमार के सेक्रेटरी जनाब एस.एम.सागर ज़िद कर फिल्मों में गीत लिखने को बम्बई ले गए तो थोड़ा-बहुत वक़्त ही वहां रह पाए. भोपाल की गलियों की सदा उनके कानो में ऐसी गूंजती रही कि काम-धाम छोड़-छाड़ वापस लौट आए.

1969 की फिल्म आंसू बन गए फूल तो आपको याद होगी. न भी याद हो तो यह गीत तो याद आ ही जाएंगे. इलेक्शन में मालिक के लड़के खड़े हैं / इन्हें कम न समझो ये खुद भी बड़े हैं किशोर कुमार की आवाज़ में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत के साथ चुनाव और नेताओं पर खूबसूरत व्यंग.

इसी गीत की लाईने है कि इस शहर में जितने हैं, अखबार इनके हैं / काले-सफेद सैकड़ों व्यापार इनके हैं / ...सब अस्पताल इनके हैं, बीमार इनके हैं / परनाम लाख बार करो / इनको वोट दो / वादों पे ऐतबार करो इनको वोट दो. इसी फिल्म का दूसरा गीत आशा भोंसले ने क्या खूब गाया है –‘ महरबां, महबूब, दिलबर, जानेमन / आज हो जाए कोई दीवानापन.

यह ताज साहब का एक रूप है. दूसरे रूप में उन्हें देखिए तो पहचानना मुश्किल हो जाए.

नुमाइश के लिए जो मर रहे हैं

वो घर के आइनों से डर रहे हैं

बला से जुगनूओं का नाम दे दो

कम-से-कम रोशनी तो कर रहे हैं

***

तुम्हे कुछ भी नहीं मालूम लोगो

फरिश्तों की तरह मासूम लोगो

ज़मीं पर पांव आंखें आस्मां पर

रहोगे उम्र भर मग़मूम लोगो

रहोगे कब तलक मज़लूम लोगो

***

निर्वाण घर में बैठ के होता नहीं कभी

बुद्ध की तरह कोई मुझे घर से निकाल दे

पीछे बन्धे हैं हाथ मगर शर्त है सफर

किससे कहें कि पांव के कांटे निकाल दे

अफसोस ताज साहब को अपने पांव के कांटो और दिल के छालों के साथ ही सफर पूरा करना पड़ा। पूरे 52 साल का सफर।

Wednesday, September 23, 2009

तंग करती है यह तस्वीर


यह तस्वीर मुझे बहुत तंग करती है. यह तस्वीर मुझे कुछ कहती है. मैं इस तस्वीर का कहा सबको सुना देना चाहता हूं. उनको भी जो दुनिया में किसी की भी नहीं सुनते.

कितनी बार कोशिश कर नाकाम हो चुका हूं. कमाल है! जो बात एक तस्वीर कर जाती है मैं, एक इंसान, अपने लफ्ज़ो में उसे दोहरा तक नहीं पा रहा.

क्या करूं ?

वही किये लेता हूं जो मेरे साथ हुआ है. इस तस्वीर को ही सबके सामने रखे देता हूं. जितनी कहानी इसके बारे में सुनी है, उसे भर सुनाए देता हूं. बाकी तस्वीर मेरी तरह अपनी बात खुद सबसे कह लेगी. यही एक रास्ता है.

यह तस्वीर है केन कोज़ाकेविच की. 1991 के खाड़ी युद्ध में घायल सिपाही जिसे हेलीकाप्टर के ज़रिये ईराक़ से जर्मनी के एक अस्पताल ले जाया जा रहा है. जाते समय उसके बगल में एक बैग में बंद शव भी रखा गया. कुछ देर बाद उसके हाथ में उस बैग में बंद मृत सैनिक का आई.डी. कार्ड दिया गया. उसने कार्ड को जेब में रखने से पहले उस पर लिखा नाम पढ़ा – ऐंडी. उसका सबसे प्यारा दोस्त जो उसी की तरह इस युद्ध में लड़ने आया था.

बस यहीं तक.

Monday, September 21, 2009

अलेक्ज़ेंडर ब्लाक

कोई सवा सौ साल पहले रूस में एक ऐसा कवि पैदा हुआ जो मेरे लिए कविताएं लिख गया है. मुझे इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं होगा अगर कोई यह कह दे कि मेरा दावा ग़लत है और यह कविताएं दरअसल उसके लिए लिखी गई हैं. नो प्राब्लम. मैं हर इंसान का इस दुनिया की हर उस चीज़ में जो इस दुनिया को बेहतर बनाती है, उतना ही हक़ मानता हूं जितना कि अपना.

मैं रूस के इस अनूठे रंगों वाले कवि अलेक्ज़ेंडर ब्लाक (1888 – 1921) की बात कर रहा हूं. ब्लाक को पुश्किन के बाद का सबसे मह्त्वपूर्ण रूसी कवि माना जाता है. इनकी कविताओं का हिन्दी में भी शायद कुछ अनुवाद हुआ है मगर मैं इस समय उनके एक अंग्रेज़ी अनुवाद वाली कविता की बात कर रहा हूं, जो मुझे बार-बार पसंद आती है. आज भी उसी को दोहराना चाहता हूं.

To My Friends

We’re inwardly seething with envy
We’re hostile and deaf to each other,
If we could but banish this hatred
That goes on for ever and ever!

But what can we do? Each has poisoned
His house till it’s beyond human aid.
The walls are all dripping with venom,
There’s nowhere to lay down one’s head.

So what can we do? Disenchanted,
We laugh till our sanity is gone,
And, drunk, in the street, we stand watching
Our houses crash down to the ground.

We’re traitors in life and in friendship,
We squander our words without sense,
But what can we do? For we’re clearing
The way for our yet unborn sons.

When, under some fence in the nettles,
My own wretched bones lie a-rotting,
Some future historian will accomplish
A prodigious exploit of writing…

And all to inflict cruel torments
On kids who’ve not done any harm
With dates (birth and death) and revolting
Quotations as long as your arm.

A pitiful fate – all one’s lifetime
To experience heaven and hell,
Then be a dull lecturer’s victim
And spawn other critics as well…

Plunge into fresh weeds by the wayside,
Let total oblivion fall ;
Be silent, you volumes, confound you –
I just didn’t write you at all !

Alexander Blok

24 July 1908

Translated by Alex Miller (1981)

Monday, September 14, 2009

उस गली में


उस गली में

मुस्कराता है एक बच्चा

हर शाम

निकलता हूं जब मैं

अपने काम पर


उसकी मुस्कान

मुझे दे देती है पंख

और मैं

उड़ता-उड़ता

अपनी पूरी ऊर्जा और वेग के साथ

पहुंच जाता हूं वहां

जहां लगी हैं कैंचियां

चारों तरफ

पर कतरने के लिए


हर रात

लौट आता हूं

रेंगता-रेंगता

अपने कटे हुए परों के साथ

उसी गली में

जहां मेरा घर है

और जहां

मुस्कराता है एक बच्चा

हर शाम

मुझे पंख देने के लिए

( 2006 में प्रकाशित कविता संग्रह बाकी बचें जो से )

दिल में बजे हारमोनियम

आज बात कुछ और करने चला था मगर कर कुछ और रहा हूं. वजह ? वजह यह कि दिमाग़ में कुछ और गूंज चली थी और दिल में कुछ और चल रहा था. दिमाग़ का शोर ज़रा थमा तो दिल की आवाज़ सुनाई दी. हमेशा की तरह उसी की सुनूंगा और उसी की कही सुनाऊंगा. शकील बदायूनी ने लिखा था ‘दिल में बजें प्यार की शहनाइयां’ मगर मेरे दिल में इस वक़्त बज रहा है हारमोनियम. सच कहता हूं यह जो हारमोनियम है न, जब बजता है तो बेचारा दिमाग़ भी चुपचाप दिल के साथ हो जाता है.

आप कहेंगे मैं भी क्या सिंथेसाईज़र के ज़माने में हारमोनियम की बात ले बैठा. मगर हजूर पहला हमरा बात सुनिए, फिर लगे तो कुछ कहिएगा. ठीक ? तो सबसे पहले सुनिए हमरा दिल-दिमाग में गूंज क्या रहा है ? : ‘हमपे दिल आया तो बोलो क्या करोगे ? हमने तड़पाया तो बोलो क्या करोगे ?’ (फिल्म दो उस्ताद) .यह सवाल है आशा भोंसले की आवाज़ में. और इन दोनो सवालों के बीच में हारमोनियम की आवाज़ ऐसे आती है जैसे उसे पता हो आपके पास इन सवालो का जवाब नहीं और वह ज़ुबान निकालकर आपको चिड़ा रही हो. अब बोलो का करोगे ?

मेरी सलाह मानें, इन छेड़ती हुई दो आवाज़ों की संगत को सलाम करें और कहें ‘ओ.पी.नैयर तुसी ग्रेट हो’. जी हां यह उन्ही का संगीत है. हालांकि मुजरे और भिखारी गीतों में लगभग सभी संगीतकारों ने इस साज़ का इस्तेमाल किया है मगर नैयर साहब का हारमोनियम प्रेम कमाल का था.जब मौका लगा उसका भरपूर और खूबसूरत इस्तेमाल किया. अब जैसे फिल्म ‘काश्मीर की कली” का मोहम्मद रफी वाला गीत याद कीजिए न –‘सुभानल्लाह हाय ! हंसी चेहरा हाय !, ये मस्ताना अदाएं, खुदा महफूज़ रखे हर बला से, हर बला से’. है न कमाल ? काश्मीर की हसीन वादियां. उस पर शम्मी कपूर जैसा खूबसूरत इंसान, अपनी मस्तानी उछल-कूद के साथ शर्मीला टैगोर के हुस्न की तारीफ गाता है तो लफ्ज़ों के बीच में हारमोनियम की आवाज़ ऐसी उठती है मानों डल झील का पानी खुशी में उछल-उछल कर इस मंज़र पर वाह-वाह कर रहा हो. यकीन न हो तो ज़रा गाना बजाकर हारमोनियम वाले पीस के साथ वा-वा,वा-वा..वा,वा.वा..वा गाकर देख लें.

नैयर साहब के सारे गाने गिनाने बैठूंगा तो खेल यहीं खत्म हो जाएगा. फिर भी कुछ मुखड़े तो याद किए ही जा सकते हैं. ‘ले के पहला-पहला प्यार’ (फिल्म सी.आई.डी), ‘कजरा मोहब्बत वाला, अंखियों में ऐसा डाला’ (किस्मत), ‘तेरा निखरा-निखरा चेहरा’ (सी.आई.डी 909). वगैरह.

ओ.पी.नैयर से काफी पहले हिन्दी सिनेमा की पहली संगीतकार जोड़ी हुस्नलाल भगतराम ने हारमोनियम का बेजोड़ इस्तेमाल किया है. 1949 की फिल्म ‘बड़ी बहिन’ के दो लाजवाब गीत हैं लता मंगेशकर की आवाज़ में जिनमें हारमोनियम का ऐसा बेमिसाल खूबसूरत इस्तेमाल हुआ है कि अगर आप इसे एक बार भी भी सुन लें तो शेष जीवन में आपको जब कभी या जहां कहीं हारमोनियम सिर्फ रखा हुआ भर दिख जाए तो आप इस साज़ को दिल ही दिल झुककर सलाम करेंगे. पहला गीत है ‘जो दिल में खुशी बनकर आए, वो दर्द बसाकर चले गए, हाय! चले गए ‘. इससे पहले कि आपको यह लाईनें आप लता की आवाज़ में सुनें उससे पहले यह पूरी की पूरी लाईनें हारमोनियम पर सुनाई देती हैं. सुनिए और सोचिए हारमोनियम जैसा खूबसूरत साज़ आजकल के गीतों में सुनाई क्यों नहीं देता.

दूसरा गीत है ‘चुप-चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है, पहली मुलाक़ात है जी पहली मुलाक़ात है’. दोनो गीत सुनकर अगर आप तय कर पाएं कि दोनो में से कौनसे गीत में हारमोनियम ज़्यादा खूबसूरत बजा तो कृप्या मुझे ज़रूर खबर करें. मैं तो पिछले अनगिनत सालों से तय नहीं कर पाया हूं.

संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने हारमोनियम का इस्तेमाल कम ज़रूर किया है, मगर क्या लाजवाब तरीके से किया है. मिसाल के तौर पर 1966 की फिल्म ‘मेरे लाल’ में लता जी का गाया गीत है ‘पायल की झंकार रस्ते-रस्ते, ढूंढे तेरा प्यार रस्ते-रस्ते’. इससे भी बड़कर 4 पेग का नशा देने वाला फिल्म ‘पोंगा पंडित’ का गीत ‘तेरे मिलने के पहले भी जीते थे हम, जीने वाली मगर बात कोई न थी’. इस गीत में प्यानो अकार्डियन और हारमोनियम की कमाल जुगलबन्दी है. और एल.पी. को उनके उरूज़ पर देखना हो तो फिर सुनिए फिल्म ‘लोफर’ का गीत ‘कोई शहरी बाबू, दिल लहरी बाबू, पग बांध गया घुंघरू, मैं छम-छम नचदी फिरां’.

आशा भोंसले की आवाज़ से पहले ओपनिंग में जब हारमोनियम बजता है, तो लगता है, खुद ही नाचना शुरू कर दूं. हारमोनियम से ऐसी जादू भरी आवाज़ पैदा करने वाले फनकार का नाम है मास्टर सोनिक. संगीतकार जोड़ी सोनिक-ओमी के मास्टर सोनिक बेमिसाल पेटी बजाते थे. लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जोड़ी के लगभग सारे हारमोनियम पीस इन्होने ही बजाए हैं.

हुस्नलाल-भगतराम में से हुस्नलाल जी वायलिन के उस्ताद थे तो भगतराम जी हारमोनियम के. ‘बड़ी बहन’ के गीत सुनकर देखिए, मेरी बात पर यकीन आ जाएगा.
ओ.पी.नैयर साहब के लिए यह काम करने वाले कलाकार का नाम है बाबू सिंह. शंकर-जयकिशन के लिए यह ज़िम्मेदारी निभाते रहे वी.बलसारा और संगीतकार गुलाम मोहम्मद के छोटे भाई मास्टर इब्राहीम.

इइसके अलावा 1960 की फिल्म ‘मुक्ति’ में भी संगीतकार मलय चक्रवर्ती ने भी बड़ा खूबसूरत गीत रचा है. ‘सितम भी तुम्हारे,करम भी तुम्हारे, पुकारें सितमक़श तो किसको पुकारें’ . इसी तरह फिल्म ‘चालीस दिन’ में अन्नु मलिक के पिता सरदार मलिक के संगीत में आशा भोंसले और मन्ना डे का गीत ‘नसीब होगा मेरा महरबां कभी न कभी, हाय, कभी न कभी’.

मगर इन सबका सरताज गीत, जिसमें हारमोनियम का ऐसा इस्तेमाल हुआ है कि हार्मोनियम के जनक एलेक्ज़ेन्डर डिबैन सुनते तो खुद को दाद देने लगते कि ‘वाह क्या चीज़ ईजाद की है मैने’. मै बात कर रहा हूं 1963 की सुनील दत्त की फिल्म ‘मुझे जीने दो’ के गीत ‘रात भी है कुछ भीगी-भीगी, चान्द भी है कुछ मद्धम-मद्धम, तुम आओ तो आंखें खोलें सोई हुई पायल की छम-छम’. हाय ! क्या ज़ालिम इस्तेमाल किया है संगीतकार जयदेव ने हारमोनियम का. चाहे उसका ओपनिंग पीस ले लें या फिर अंतरे में जल तरंग और तबले के साथ वाला पीस, बस कयामत है.

आप अगर किसी तरह इस कयामत के बाद भी बाहोश रहे तो दूसरे अंतरे की पहली लाईन पूरे होने का इंतज़ार करें – ‘तपते दिल पर यूं गिरती है’, ज्योंही लता मंगेशकर की आवाज़ ‘गिरती है’ कह भर पूरा करती है कि बिजली के तेज़ी से हारमोनियम की अवाज़ एक अंगड़ाई से लेती हुई उठ खड़े होने का आभास दे जाती है. इसके बाद जाकर लता जी इसे पूरा करती हैं – ‘तपते दिल पर यूं गिरती है तेरे नज़र से प्यार की शबनम, तेरी नज़र से प्यार की शबनम...जलते हुए जंगल पर जैसे बरखा बरसे रुक-रुक, थम-थम...छम-छम...छम-छम...छम-छम, छम-छम...छमछम.

नहीं मतलब हंसने वाली बात नहीं है. खुद भी एक बार ट्राइ कीजिए. अगर आपका हाल भी मुझसा न हो तो कहिएगा. बहरहाल, मैने दिल की सुनी, आपने मेरी सुनी. हिसाब बराबर. अब आप सुनेंगे कि सुनाएंगे, आप तय करें.
किसी मेहरबां की नज़र लग गई

हारमोनियम का जन्म फ्रांस में हुआ मगर हमारे देश में इसका आगमन हुआ उनीसवी शताब्दी में अंग्रेज़ मिशनरीज़ के आगमन के साथ. बंगाल के द्वारकानाथ घोष ने इसमें कुछ संशोधन कर इसे इतना सरल बना दिया कि यह घर-घर में लोकप्रिय हो गया. आज भी मन्दिरों और गुरुद्वारों में भजन-कीर्तन के समय इसी का इस्तेमाल होता है.

इतनी भारी लोकप्रियता के बावजूद भारतीय शास्त्रीय संगीत में हारमोनियम को एक हीन किस्म का साज़ माना जाता है. इसका कारण यह है कि हारमोनियम पर सारंगी की तरह मींड का प्रभाव पैदा नहीं किया जा सकता है जहां साज़ और आवाज़ का स्वर एक हो जाता है. और तो और आकाशवाणी पर भी इस साज़ के उपयोग पर पाबन्दी लगा दी गई थी.

इसके बाद भी कुछ लोग इस साज़ को बड़ा समान देते हैं. खासकर क़व्वाली गायक. क़व्वाली के शुरूआती दौर से भी ज़्यादा पचास के दशक में संगत के लिए यह एक अनिवार्य साज़ बन गया. साबरी ब्रदर्स,शंकर शम्भु और नुसरत फतेह अली खान जैसे फनकारों ने इसका बहुत इस्तेमाल किया है.

पश्चिमी संगीत में इसका फुटकर इस्तेमाल यहां-वहां होता रहा है और अब भी हो रहा है मगर बीटल्स ने अपने संगीत में हारमोनियम का खासा इस्तेमाल किया है. मगर यहां भारत के फिल्म संगीत से ढेर सारे दूसरे साज़ों के साथ हारमोनियम भी सिंथेटिक म्युज़िक से हारकर ओझल हो रहा है.

और...
और हां! एक बात और याद आई. क़व्वाली की बात करते एक क़व्वाली याद आ गई जिसमें हारमोनियम का बेंजो के साथ अदभुत इस्तेमाल हुआ है. ‘हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने, गोरे-गोरे गालों ने, काले-काले बालों ने’. 1958 की फिल्म ‘अल-हिलाल’ की इस अमर क़व्वाली ने अपने ज़माने में बड़ी धूम मचाई थी और आज 50 साल बाद भी संगीत प्रेमियों में यह उतनी ही मशहूर है. बेशक इसकी वजह हारमोनियम नहीं बल्कि बुलो.सी.रानी का संगीत और इस्माईल आज़ाद क़व्वाल की आवाज़ का जादू है मगर हारमोनियम का भी इसमें उतना ही योगदान है.

तो हुज़ूर यहां खत्म हुई हारमोनियम की बात. मगर अपनी बात तो जारी रहेगी न. सो सात दिन बाद देखता हूं दिल क्या कहता है. मतलब दिल जो कहेगा वही तो होगी हमारी-आपकी बात ‘आपस की बात’.

जय-जय.

( दैनिक भास्कर के रविवारीय ‘रसरंग’ में 04 मई 2008 को प्रकाशित )

Friday, September 11, 2009

जो चाहोगे, वही छपेगा !

ज़माना गुज़रा जब ‘सारिका’ (अगस्त 1971) में व्यंग्य चित्र छपा था. ‘जो चाहोगे,वही छपेगा!’. 38 साल बाद उसे देखा तो आज के समय में भी यह काफी सामयिक सा लगा. इसे सम्पादक की नज़र से देखें या लेखक की नज़र से, बहुत ही मुफीद किस्म की अभिव्यक्ति लगती है.

ज़रा आप भी देखिए और बताइये मैं कितना ठीक बोल रहा हूं.

Thursday, September 10, 2009

कोई मुझे पुकारा किया

अजब हाल में हूं. दो साल पहले तक रूमी बाबा में ऐसा डूबा था कि दुनिया में कुछ और दिखाई ही न देता था. दो साल पहले जब पुस्तक जहान-ए-रूमी प्रकाशित हो गई तो धीरे-धीरे फिर से अपने पुराने हाल में लौट आया.


वही इस ख़्वार दुनिया में अपने हिस्से की ख़्वारी को जिस्म पर ओड़ लेने वाली आदतें. वही ज़माने की होड़ और दौड़ में शिरकत. वही उजालों की तलब. वही ख़ुद को ख़ुद से बड़ा देखने वाला नज़रिया. सब कुछ वही.


मैं बार-बार इस सब से भागता हूं. बार-बार कोई चीज़ मुझे ठीक वहीं लाकर खड़ा कर देती है. शुक्र है, ऐसे में मेरे अलालपन ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा. वरना इतने सारे प्रलोभन मुझे दौड़ा-दौड़ा कर कामयाब लोगों के उस निज़ाम का हिस्सा बना लेते जिस निज़ाम को बदलने की नीयत से किसी उम्र में घर से बाहर निकला था.


अभी सोते-सोते जागा हूं. अब सोना नहीं खोना चाहता हूं. खोना चाहता हूं उन सब चीज़ों को जो मेरी नहीं हैं.


रूमी बाबा की तरफ लौट चलता हूं. वहां से सब कुछ साफ-साफ दिखाई देता है.


कोई मुझे पुकारा किया


ताउम्र किया / कि वो किया

औरों ने भी जो किया किया

ख़ुद को न तब जाना किया


न ख़ुद ने बताया ख़ुद को

अच्छा किया? बुरा किया?

न तो आंख को सूझा किया

न तो दिल को कुछ समझा किया


निकल पड़ा, बस को बाहर

जिस दम को ही सुना मैने

कोई मुझे पुकारा किया

(पुस्तक जहान-ए-रूमी से)