इंसानी फितरत का भी कोई जवाब नहीं. जब, जिस हाल में रहे, उस समय,काल और हाल की शिकायत किए बिना रहा नहीं जाता. अब आप आज की हालत देखें. मुझ जैसे उम्र-रसीदा लोग नए ज़माने के नए माहौल,नए दौर की ऐसे धज्जियां उड़ाने को तुले रहते हैं कि बस अल्लाह रहम करे.
सच तो यह है कि जिस कल की दुहाई दे-दे कर नए को बुरा कहा जाता है, ज़रा उस की तरफ भी एक नज़र हो जाए. नहीं, मैं कोई रामायण और महाभारत की मिसालें देकर अपनी बात साबित करने वाला नहीं हूं. बहुत दूर क्यों जाना. बस कुल मिलाकर 60-70 साल ही पीच्छे चलना है. सो चलिए, चलते हैं 1930 और40 वाले दौर में.
हां, एक बात और. पहले से बता देता हूं. यह संगीत की दुनिया है. हम लोग इसी जगह से, इसी माध्यम से तब की दुनिया देखेंगे. देखेंगे क्या, हम तो वहां तक पहुंच गए है. सो देखिये,सुनिए,सोचिए.
‘आजकल भारतवासी अपने भारतवासी भाईयों के साथ कितनी हमदर्दी करते हैं और अपने ह्र्दय पर कितना विश्वास करते हैं.
घर जला भाई का भाई से बुझाया न गया
क़ौम के वास्ते दुख दर्द उठाया न गया
हां रे! अपनी कोठी में किये बिजली के तो रौशन लैम्प
देव मन्दिर में तो दिया भी जलाया न गया
आप जी भर के तो खाते मलाई माखन को (लेकिन)
सूखा टुकड़ा किसी भूके को खिलाया न गया
बहू बेटियों के लिये लाख उड़ा दीं मुहरें
(लेकिन धरम के लिये कोई मांगने को आ जाये तो क्या होता है?)
धरम के काम पैसा भी लगाया न गया
वैश्याओं को तो दें (कितनी हमदर्दी रखते हैं वैश्याओं के साथ और अपनी औरतों के साथ कितनी हमदर्दी रखते हैं)
वैश्याओं को तो दें साड़ियां रेशम की बहुत
धोती जोड़ा किसी विधवा को पिनाया न गया
ग़ैरों के आगे तो जा झुकते हैं कमानी की तरह
भूल कर सर कभी मन्दर में झुकाया न गया’
दोस्तों, अपने ज़माने से नाराज़ ये आवाज़ पंडित वासदेव की है. मेरा मतलब यह उनकी आवाज़ मे गाया गया गीत है जो अन्दाज़न 30 या 40 के दशक में बने 78 आरपीएम रिकार्ड पर मौजूद है. अच्छा एक बात और बता दूं. यह जो ऊपर पहला जुमला है या फिर बीच में एक टिपणी है वह भी वासदेव जी की हे है मेरी नहीं.
इसी रिकार्ड के दूसरी तरफ क्या है ज़रा उसे भी सुनें. वही अपने पंडित वासदेव जी हैं दूसरी शिकायत लेकर.
ऊपर की तरह नीचे भी ग़ज़ल के बीच-बीच में, कहीं-कहीं शुरू में ही उनकी टिप्पणियां हैं.
‘हमारी प्राचीन चीज़ों को आजकल किस तरह से बरता जा रहा है. उनका क्या नाम रखकर उनसे क्या काम लिया जा रहा है :
सारी बहार गुलिस्ताने रीडर ने छीन ली
रोज़ी तो पंडितॉ की टीचर ने छीन ली
बेला,चमेली,चम्पा कोई अरे सूंघता नहीं
खुशबू-ए-अतर , बू-ए लवेंडर ने छीन ली
तासीरे अर्क नाना तासीरे बादियान
आईस्क्रीम,सोडा व जिंजर ने छीन ली
रथ बहलियों के नाम तो मबज़ूल हो गये
इनकी कमाई अंजन और मोटर ने छीन ली
वेदक हकीम को तो कोई पूछता नहीं
हिकम्मत जो इनकी थी वो डाक्टर ने छीन ली
रुमाल की बहार और गुलबंद की फबन
जो कुच्छ रही-सही थी वो मफलर ने छीन ली
क्या-क्या कहूं मैं जीवा यह कलयुग के चलन
हरकत जो बूज़मां थी वो मिस्टर ने छीन ली ’
यह तो हुई मज़े-मज़े में शिकायत की लेकिन कुच्छ
(पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' में पूर्व प्रकाशित)
अच्छा लगा
ReplyDeletekuch taza post karen.........
ReplyDeleteबुरे से बुरी चीज़ भी वक़्त गुज़रने के साथ अपनी बुराई खो देती है...
ReplyDeleteअच्छी बाते और यादें हमेशा अच्छी ही बनी रहती हैं ..!!