एक भूला बिसरा नाम- अख्तरुल-ईमान (1915-1996). ज़्यादातर लोग उन्हें एक फिल्मी लेखक के तौर पर जानते हैं. थे भी. मगर फिल्मों से बहुत पहले ही वो एक नामवर शायर और कहानीकार थे. इसी ताक़त के दम पर उन्होने फिल्मी दुनिया में मर्तबा हासिल किया. फिल्मों में रहते हुए भी शायरे नाता बरकार रहा. यूं तो उन्होने 1948 में फिल्म ‘झरना’ के साथ अपना फिल्मी सफर शुरू किया, मगर उनकी खास पहचान बी.आर.चौपड़ा की बामक़सद फिल्मों के लेखक के तौर पर जाना गया.
कहानियों से ज़्यादा संवाद लिखे. और क्या ख़ूब लिखे. ‘चिनाय सेठ ! जिनके घर शीशे के होते हैं वह औरों के घर पे पत्थर नहीं फैंकते’. (फिल्म: वक़्त-1965)
बहरहाल इस वक़्त मैं उनकी फिल्मों के बजाय ज़िक्र करना चाहता हूं उनके साहित्यिक अवदान का. उस साहित्य का जिसके लिए 1962 में उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ. अतहर फारूक़ी जैसे उर्दू भाषा के विद्वानों का कहना है कि ‘...अख्तरुल-ईमान की शायरी के तमाम पहलुओं को समझने में तो अभी उन उर्दूवालों को भी सदियां लगेंगी जो अभी तक अठारहवीं शती के विशुद्ध प्राच्य परम्परा के कवि ‘मीर’ को भी ठीक से नहीं समझ सके हैं’.
अख़्तरुल-ईमान ने अपनी शायरी में ग़ज़ल की बजाय नज़्म को ज़्यादा तवज्जो दी. हर नज़्म अपनी पूरी जटिलता के साथ एक दर्द,एक कहानी,एक चेहरा और एक सवाल बनकर उसे पढ़ने-सुनने वाले के साथ हमेशा-हमेशा के लिए रह जाती है. उनकी बेहद मशहूर नज़्म ‘एक लड़का’ ऐसी ही एक चीज़ है. इस नज़्म को लेकर वे ख़ुद कहते हैं : “...फिर एक दिन, रात के एक बजे के करीब मेरी आंख खुल गई. ज़ेहन में एक मिसरा गूंज रहा था – ‘ये लड़का पूछता है, अख्तरुल-ईमान तुम ही हो? मुझे मालूम था, यह लड़का कौन है, मगर मुझसे इस किस्म की पूछ्गछ क्यों कर रहा है ? मुझसे मेरे कर्मों का हिसाब क्यों मांग रहा है...”
यह नज़्म ख़ासी लम्बी है सो उसे किसी अगले मौके के लिए रख छोड़ता हूं फिलहाल तो बीच-बाच से कुछ नमूने भर को चीज़ें पेश कर रहा हूं. मतलब जो मुझे बहुत अज़ीज़ हैं.
बर्तन,सिक्के,मुहरें, बेनाम खुदाओं के बुत टूटे-फूटे
मिट्टी के ढेर में पोशीदा चक्की-चूल्हे
कुंद औज़ार, ज़मीनें जिनसे खोदी जाती होंगी
कुछ हथियार जिन्हे इस्तेमाल किया करते होंगे मोहलिक हैवानों पर
क्या बस इतना ही विरसा है मेरा ?
इंसान जब यहां से आगे बढ़ता है, क्या मर जाता है ?
(नज़्म : काले-सफेद परोंवाला परिंदा और मेरी एक शाम)
एक नज़र ज़रा गद्य पर डालिए.
‘आज का टूटा हुआ आदमी कल के आदमी से मुख़्तलिफ़ है. कल के आदमी के पास ज़मीन बहुत थी, आबादी कम थी. सौ रुपए की नौकरी बड़ी नौकरी होती थी. घर में खटमल-पिस्सू हो जाते थे तो वह बदलकर दूसरे मकान में चला जाता था. एक रुपए में रेलगाड़ी में बैठकर सैकड़ों मील का सफर कर लेता था. आज के आदमी के पास ज़मीन नहीं रही. ज़मीन पर फैलने की बजाय वह आसमान की तरफ बढ़ने लगा है और सौ-सौ मंज़िल की इमारतों में रहने लगा है. खटमल-पिस्सू क्या, आज उसके मकान में सारे ज़मीन-आसमान की बलाएं भी उतर आएं तो वह न बदल सकता है न छोड़ सकता है. कल के आदमी के मकान, दालान-दर-दालान होते थे, बड़े-बड़े कमरों पर आधारित. आज के आदमी के मकान कबूतर के डरबे के बराबर हैं.’
और आखिर में अपनी शायरी के बारे में खुद ईमान साहब की बात और एक छोटा सा हिस्सा उनकी एक नज़्म का.
‘मेरी शायरी क्या है, अगर एक जुमले में कहना चाहें तो मैं इसे इंसान की रूह की पीड़ा कहूंगा’.
मैं पयंबर नहीं
देवता भी नहीं
दूसरों के लिए जान देते हैं वो
सूली पाते हैं वो
नामुरादी की राहों से जाते हैं वो
मैं तो परवर्दा हूं ऐसी तहज़ीब का
जिसमें कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ
शर-पसंदों की आमाजगह
अम्न की क़ुमरियां जिसमें करतब दिखाने में मसरूफ़ हैं
मैं रबड़ का बना ऐसा बबुआ हूं जो
देखता,सुनता,महसूस करता है सब
पेट में जिसके सब ज़हर ही ज़हर है
पेट मेरा गर कभी दबाओगे
जिस क़दर ज़हर है
सब उलट दूंगा तुम सबके चेहरों पे मैं !