Thursday, October 29, 2009

‘ये लड़का पूछता है, अख्तरुल-ईमान तुम ही हो?


एक भूला बिसरा नाम- अख्तरुल-ईमान (1915-1996). ज़्यादातर लोग उन्हें एक फिल्मी लेखक के तौर पर जानते हैं. थे भी. मगर फिल्मों से बहुत पहले ही वो एक नामवर शायर और कहानीकार थे. इसी ताक़त के दम पर उन्होने फिल्मी दुनिया में मर्तबा हासिल किया. फिल्मों में रहते हुए भी शायरे नाता बरकार रहा. यूं तो उन्होने 1948 में फिल्म झरना के साथ अपना फिल्मी सफर शुरू किया, मगर उनकी खास पहचान बी.आर.चौपड़ा की बामक़सद फिल्मों के लेखक के तौर पर जाना गया.


कहानियों से ज़्यादा संवाद लिखे. और क्या ख़ूब लिखे. चिनाय सेठ ! जिनके घर शीशे के होते हैं वह औरों के घर पे पत्थर नहीं फैंकते. (फिल्म: वक़्त-1965)


बहरहाल इस वक़्त मैं उनकी फिल्मों के बजाय ज़िक्र करना चाहता हूं उनके साहित्यिक अवदान का. उस साहित्य का जिसके लिए 1962 में उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ. अतहर फारूक़ी जैसे उर्दू भाषा के विद्वानों का कहना है कि ...अख्तरुल-ईमान की शायरी के तमाम पहलुओं को समझने में तो अभी उन उर्दूवालों को भी सदियां लगेंगी जो अभी तक अठारहवीं शती के विशुद्ध प्राच्य परम्परा के कवि मीर को भी ठीक से नहीं समझ सके हैं.


अख़्तरुल-ईमान ने अपनी शायरी में ग़ज़ल की बजाय नज़्म को ज़्यादा तवज्जो दी. हर नज़्म अपनी पूरी जटिलता के साथ एक दर्द,एक कहानी,एक चेहरा और एक सवाल बनकर उसे पढ़ने-सुनने वाले के साथ हमेशा-हमेशा के लिए रह जाती है. उनकी बेहद मशहूर नज़्म एक लड़का ऐसी ही एक चीज़ है. इस नज़्म को लेकर वे ख़ुद कहते हैं : ...फिर एक दिन, रात के एक बजे के करीब मेरी आंख खुल गई. ज़ेहन में एक मिसरा गूंज रहा था ये लड़का पूछता है, अख्तरुल-ईमान तुम ही हो? मुझे मालूम था, यह लड़का कौन है, मगर मुझसे इस किस्म की पूछ्गछ क्यों कर रहा है ? मुझसे मेरे कर्मों का हिसाब क्यों मांग रहा है...


यह नज़्म ख़ासी लम्बी है सो उसे किसी अगले मौके के लिए रख छोड़ता हूं फिलहाल तो बीच-बाच से कुछ नमूने भर को चीज़ें पेश कर रहा हूं. मतलब जो मुझे बहुत अज़ीज़ हैं.


बर्तन,सिक्के,मुहरें, बेनाम खुदाओं के बुत टूटे-फूटे

मिट्टी के ढेर में पोशीदा चक्की-चूल्हे

कुंद औज़ार, ज़मीनें जिनसे खोदी जाती होंगी

कुछ हथियार जिन्हे इस्तेमाल किया करते होंगे मोहलिक हैवानों पर

क्या बस इतना ही विरसा है मेरा ?

इंसान जब यहां से आगे बढ़ता है, क्या मर जाता है ?

(नज़्म : काले-सफेद परोंवाला परिंदा और मेरी एक शाम)


एक नज़र ज़रा गद्य पर डालिए.


आज का टूटा हुआ आदमी कल के आदमी से मुख़्तलिफ़ है. कल के आदमी के पास ज़मीन बहुत थी, आबादी कम थी. सौ रुपए की नौकरी बड़ी नौकरी होती थी. घर में खटमल-पिस्सू हो जाते थे तो वह बदलकर दूसरे मकान में चला जाता था. एक रुपए में रेलगाड़ी में बैठकर सैकड़ों मील का सफर कर लेता था. आज के आदमी के पास ज़मीन नहीं रही. ज़मीन पर फैलने की बजाय वह आसमान की तरफ बढ़ने लगा है और सौ-सौ मंज़िल की इमारतों में रहने लगा है. खटमल-पिस्सू क्या, आज उसके मकान में सारे ज़मीन-आसमान की बलाएं भी उतर आएं तो वह न बदल सकता है न छोड़ सकता है. कल के आदमी के मकान, दालान-दर-दालान होते थे, बड़े-बड़े कमरों पर आधारित. आज के आदमी के मकान कबूतर के डरबे के बराबर हैं.


और आखिर में अपनी शायरी के बारे में खुद ईमान साहब की बात और एक छोटा सा हिस्सा उनकी एक नज़्म का.

मेरी शायरी क्या है, अगर एक जुमले में कहना चाहें तो मैं इसे इंसान की रूह की पीड़ा कहूंगा.


मैं पयंबर नहीं

देवता भी नहीं

दूसरों के लिए जान देते हैं वो

सूली पाते हैं वो

नामुरादी की राहों से जाते हैं वो

मैं तो परवर्दा हूं ऐसी तहज़ीब का

जिसमें कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ

शर-पसंदों की आमाजगह

अम्न की क़ुमरियां जिसमें करतब दिखाने में मसरूफ़ हैं

मैं रबड़ का बना ऐसा बबुआ हूं जो

देखता,सुनता,महसूस करता है सब

पेट में जिसके सब ज़हर ही ज़हर है

पेट मेरा गर कभी दबाओगे

जिस क़दर ज़हर है

सब उलट दूंगा तुम सबके चेहरों पे मैं !

Thursday, October 22, 2009

जिनके घर में छह लठा, सो अंच गिने न पंच

सागर में एक मित्र बसते हैं – रमेश दत्त दुबे. हिन्दी के जाने-माने कवि-कथाकार. नवीन सागर की बदौलत उनसे मुलाक़ात हुई. मुहब्बत हुई. उनसे जितनी बार मिलो, उतनी बार अहसास होता है कि हम लोग अपने समय के अच्छे लोगों की क़द्र करना नहीं जानते. उनकी योज्ञता,क्षमता और ज्ञानशीलता के बारे में कुछ भी कहने की बजाय बेहतर होगा कि उनके एक बड़े काम की एक छोटी सी बानगी आपके सामने पेश कर दूं.

दुबे जी ने बहुत साल पहले बुंदेलखंड की लोकोक्तियों-कहावतों के संकलन का एक मह्त्वपूर्ण काम किया. इस पुस्तक का नाम है – कहनात. यहां प्रस्तुत कहावतें मतलब कहनात उसी पुस्तक से हैं.

सबसे पहले यह वाली -

इक राम हते इक रावना
बे छत्री, बे बामना
उनने उनकी नार हरी
उनने उनकी नाश करी
बात को बन गओ बातन्ना
तुलसी लिख गए पोथन्ना


किसी छोटी सी बात को बड़ा-चढ़ा कर कहने वाले के लिए कहा जाता है

इत्ते से लाल मियां, इत्ती लम्बी पूंछ
जहां जाएं लाल मियां उतई जाए पूंछ

नकली सम्मानो का दिखावा करने वालों के लिए कहा जाता है.

खा-पी के मों पोंछ लव

मुफ्तखोर

चार लठा के चौधरी, पांच लठा के पंच
जिनके घर में छह लठा, सो अंच गिने पंच

शारीरिक शक्ति को न्याय मानने वालों के लिए कहा जाता है

आज भी हमारे ग्रामीण अंचल में महिलाएं ससुराल में नाम नहीं लेतीं. इस पर दुबे जी ने एक रोचक मिसाल दी है. ‘...पत्नी ने गुलाब जामुन बनाए. अब पति का नाम गुलाब और जेठ का नाम जमुना प्रसाद, ये नाम वो कैसे ले सकती थी सो अपने सहेली से बोली – ‘आज मैने मुन्ना के पिताजी और ताऊ को सीरा में डाला है. सहेली बोली – ‘आज मैं दुकान से वह लेने गई थी जो भगवान के आगे जलाया जाता है’. (उसके पति का नाम कपूर्चन्द था). लौटते में बीच रास्ते में मुन्ना के ताऊ जी खड़े थे. मैं तो एक पेड़ की ओट में छिप गई. जब वे चले गए तब घर लौटी. सास लड़ने लगी कि इतनी देर कहां लगा दी. अब मैं कैसे कहूं, सोचते-सोचते मैने कहा –

बैसाख उतरें बे लगत हैं, उनसें लगो असाढ़
गैल में आढ़े मिल गये, कैसें निकरें-सास

जाते-जाते, एक कहनात और.

पीतर की नथुरी पे इत्तो गुमान
सोने की होती, छूती आसमान

Wednesday, October 21, 2009

सफ़ेद खेत है- काग़ज़, काले बीज - स्याही

लीजिए हो गया एक हफ्ता पूरा और आ गया समय पहेलियों के उत्तर बताने का. आज गुरुवार है न. सबसे पहले तो वंदना जी दूसरी पहेली का सही जवाब मनोज जी ने दिया है(बधाई) हुक्का. बाकी के जवाब हाज़िर हैं.


सफ़ेद खेत में काले बीज --- काग़ज़ और स्याही

ऊपर आग नीचे पानी --- हुक्का

पहाड़ पर गाछ और गाछ पर बुलबुल का खोंता --- हुक्का

जन्मा तो बड़ा, बूढा हुआ तो छोटा ---- हल

गाय जन्मावे हड्डी, हड्डी जन्मावे बछडा ---मुर्गीअंडा

छोटा बगीचा बड़ा फूल --- मोमबत्ती

सफ़ेद मुर्गी छींटती है, काली मुर्गी बटोरती है ---दिनरात

राजा की धोती कौन नापे --- सड़क


तो यह थे जवाब. हिंदी भाषी होने के कारण इन जवाबों तक पहुंचना थोड़ा कठिन था. मैं खुद भी बिना किताब पढ़े शायद एकाध जवाब ही दे पाता. ख़ैर, यह पहेली पूछना भी एक बहाना ही है चीज़ों को एक-दूसरे के साथ बांटने का. सो हो गया.

Friday, October 16, 2009

सफ़ेद खेत में काले बीज

हर भाषा की अपनी एक सुन्दरता है। देस और परदेस की अलग-अलग भाषाओ को जानने-पहचानने की ललक में इधर-उधर को तांक-झाँक करता रहता हूँ । कई मर्तबा बड़ी मज़े की चीज़ें जानने मिल जाती हैं। ऐसे ही एक बार एक चीज़ पढ़ी थी उरांव भाषा के गीतों,मुहावरों के साथ पहेलियाँ। न जाने कबसे निशान लगा रखा है। आज यहाँ पेश किए देता हूँ।

चलिए एक खेल खेलते हैं। पहले सिर्फ़ पहेलियाँ सुनाऊंगा और उनके जवाब अपने पास ही रखूंगा। बस एक हफ्ते। मतलब आज शुक्रवार है सो अगले गुरूवार को जवाब भी लिख दूंगा। इस बीच ज़रा आप भी तो ट्राई मारें। मुझे लगता है आप में से कुछ लोग तो पक्के में जानते ही होंगे। बस सिर्फ़ मौज-मज़े के लिए।

तो हो जाए।

सफ़ेद खेत में काले बीज

ऊपर आग नीचे पानी

पहाड़ पर गाछ और गाछ पर बुलबुल का खोंता

जन्मा तो बड़ा, बूढा हुआ तो छोटा

गाय जन्मावे हड्डी, हड्डी जन्मावे बछडा

छोटा बगीचा बड़ा फूल

सफ़ेद मुर्गी छींटती है, काली मुर्गी बटोरती है

राजा की धोती कौन नापे


अच्छा हां , यह असल का हिन्दी अनुवाद है। तो बस हो जाए।

दीपावली की शुभकामनाएं



सभी मित्रों को दीपावली की शुभकामनाएं

राजकुमार केसवानी




Thursday, October 15, 2009

जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया


एक शायर है शकेब जलाली. सारे बड़े लोगों की तरह इस दुनिया को कुल जमा 32 साल तक नवाज़ा. इन सालों में ही जो कुछ शकेब कर गए, दुनिया में सौ-सौ बरस तक जीकर भी बहुत लोग नहीं कर पाए.


यूं तो शायर की पहचान उसकी शायरी है, मगर कुछ अता-पता मालूम रहे तो अपनापा ज़रा ज़्यादा महसूस होता है. सो नोट कर लें. पैदाइश अलीगढ़ के कस्बे जलाली में तारीख 1 अक्टूबर 1934 को. असल नाम सैयद हसन रिज़वी. कलमी नाम - शकेब जलाली. बदायूं से मैट्रिक तक की तालीम. बंटवारे का शिकार होकर पाकिस्तान चले गए, जहां बी.ए.पास किया. शादी की. जीने को नौकरियां की. पैसे की और ज़माने की तमाम दुश्वारियां झेलीं. दुश्वारियों ने उंगली पकड़कर दुनिया को एक नए रंग में देखने वाली नज़र दी. शकेब ने इस नज़र को ग़ज़लों की शक्ल दे दी जिससे हर कोई देख सकता है.


कहा जाता है कि शकेब ने 15 साल की उम्र से ही शेर कहना शुरू कर दिया था. इसकी कोई खास ख़बर नहीं कि वो लिखा हुआ क्या है. अब तो जो दिखाई देता है वो तो न जाने कितने इंसानों की कुल जमा उम्र के बराबर का दिखाई देता है. आज की नस्ल की नई शायरी पर छाया शकेबाना अन्दाज़ इस बात का एक पायेदार सबूत है.


12 नवम्बर 1966 को रेल पटरी पर जाकर जिस वक़्त शकेब ने जान दी, तब मैं उनकी हस्ती से बेखबर था. सच तो यह है कि वह उम्र बेखबरी की ही थी. इस क़दर कि अपनी भी कुछ ख़बर न थी. कुछ साल पहले मंज़ूर भाई (मंज़ूर एहतेशाम) ने पहली बार कुछ शेर सुनाए. दीवानगी ऐसी तारी हुई कि शकेब की हर चीज़ पढ़ लेने पर उतारू हो गया. पहले तो सिर्फ एक मजमूआ रौशनी ऎ रोशनी ही मौजूद था पर बाद में लाहौर से कुलियाते शकेब जलाली भी आ गया है. अभी मुझ तक नहीं पहुंचा है मगर बहुत देर भी नहीं है उसके आने में.


फिलहाल कुछ शेर, कुछ ग़ज़लें हाज़िर हैं.

1.

वहां की रोशनियों ने भी ज़ुल्म ढाये बहुत

मैं उस गली में अकेला था और साये बहुत


किसी के सर पे कभी टूटकर गिरा ही नहीं

इस आसमां ने हवा में क़दम जमाए बहुत


हवा की रुख़ ही अचानक बदल गया वरना

महक के काफिले सहरां की सिम्त आए बहुत


ये क़ायनात है मेरी ही ख़ाक का ज़र्रा

मैं अपने दश्त से गुज़रा तो भेद पाए बहुत


जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया

तो हम भी राह से कंकर समेट लाए बहुत


बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे

मुसाफिरों को ग़नीमत है ये सराय बहुत


जमी रहेगी निगाहों पे तीरगी दिन भर

कि रात ख़्वाब में तारे उतर के आए बहुत


शकेब कैसी उड़ान अब वो पर ही टूट गए

कि ज़ेरे-दाम जब आए थे फड़फड़ाए बहुत

2.

हमजिंस अगर मिले न कोई आसमान पर

बेहतर है ख़ाक डालिए ऐसी उड़ान पर


आकर गिरा था कोई परिन्दा लहू से तर

तस्वीर अपनी छोड़ गया है चट्टान पर


पूछो समन्दरों से कभी ख़ाक का पता

देखो हवा का नक़्श कभी बादबान पर


यारों मैं इस नज़र की बलंदी का क्या करूं

साया भी अपना देखता हूं आसमान पर


कितने ही ज़ख्म मेरे एक ज़ख्म में छिपे

कितने ही तीर आन लगे इक निशान पर


जल-थल हुई तमाम ज़मीं आसपास की

पानी की बूंद भी न गिरी सायबान पर


मलबूस ख़ुशनुमा है मगर खोखले हैं जिस्म

छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर


हक़ बात आके रुक सी गई थी कभी शकेब

छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर

और आखिर में एक शेर :


तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूं

आंखों को अब न ढांप मुझे डूबता भी देख

Wednesday, October 14, 2009

तैमूर लंग और एक गवैया

आगरा घराने के उस्ताद गायक विलायत हुस्सैन खान ने अपने संस्मरण में एक बहुत मज़ेदार किस्सा बयान किया है. बात सुनने में मज़े की लगती है लेकिन है असल में बड़ी कमाल की . खैर, वह बात बाद को, पहले किस्सा.

किस्सा यूं है बादशाह अमीर तैमूर लंग ने दिल्ली फतेह कर जश्न मनाने का हुक्म दिया. इसमें, ज़ाहिर है कि गीत-संगीत के लिए गवैयों को भी बुलाया गया. खुदा जाने क्या वजह रही हो लेकिन कोई ऐसा उस्ताद गवैया नहीं आया. दरबारियों ने जी तोड़ तलाश के बाद एक अन्धे गायक को ढूंढ ही निकाला.

यह अन्धा गायक काफी सोज़ भरी आवाज़ में गाता था. तैमूर के सामने गाकर उसने उसका दिल खुश कर दिया. बादशाह ने गवैये से उसका नाम पूछा. गवैये ने जवाब दिया : ‘दौलत खां’.
तैमूर को इस बात पर हंसी आ गई. वह खिल्ली उड़ाने वाले अंदाज़ में बोला : ‘क्या दौलत भी अंधी होती है?’

दौलत खां ने बिना विचलित हुए जवाब दिया : ‘अगर अंधी न होती तो लंगड़े के घर क्यों आती’.

पहले मैं सोच रहा था कि आखिर में अपनी बात कहूंगा, अब सोचता हूं इस पर पहले आप कुछ कहें. मैं आपके पीछे-पीछे अपनी बात भी रख दूंगा.

Sunday, October 11, 2009

जुगनू मियां की दुम जो चमकती है रात को


एक शायर हुए हैं अशरफ अली खां फुग़ां. बहुत ही मस्त-मौला किस्म के इंसान थे. चुटकुलेबाज़ी और फिकरेबाज़ी का ऐसा शौक़ था कि उनकी शायरी में भी यही रंग नज़र आते हैं. पैदाइश का तो ठीक पता नहीं लेकिन 1186 में उनकी मृत्यु हुई.


मौका मिला तो इन हज़रत के बारे में कभी थोड़ा विस्तार से लिखूंगा. फिलहाल तो कुछ शेर, कुछ बातें पेशे-खिदमत हैं, जिससे उनकी तबीयत के बारे में खासा अन्दाज़ा हो जाता है.


अब ज़रा देखिये, किस तरह उस्ताद को उस्ताद मानकर भी खुद को ही उस्ताद बना बैठे हैं.

हरचन्द अब नदीम का शागिर्द है फुग़ां

दो दिन के बाद देखिये उस्ताद हो गया


इस चुहलबाज़ी के बावजूद भाषा का भी बहुत खूबसूरती से इस्तेमाल देखने से तालुक रखता है. कहते हैं कि -


मुझसे जो पूछते हो तो हर हाल शुक्र है

यूं भी गुज़र गई मेरी वूं भी गुज़र गई

आख़िर फुग़ां वही है इसे क्यों भुला दिया

वह क्या हुए तपाक वह उल्फत किधर गई


दिल को लेकर ज़रा उनके यह अन्दाज़ देखिए.


कबाब हो गया आखिर को कुछ बुरा न हुआ

अजब यह दिल है जला भी तो बेमज़ा न हुआ


और फिर कहते हैं :



मुफ्त सौदा है अरे यार किधर जाता है

आ मेरे दिल के खरीदार किधर जाता है


आबे हयात में उनको लेकर एक किस्सा है. एक दिन दरबार में फुग़ां ने एक ग़ज़ल पढ़ी जिसका काफिया था लालियां और जालियां. खूब दाद मिली. दरबार मॆं जुगनू मियां नाम का एक मसख़रा था जो राजा का काफी मुंह लगा था. उसने आवाज़ लगाई नवाब साहब, सब काफ़िये आपने बांधे मगर तालियां रह गईं. राजा साहब ने भी इस बात का जब समर्थन किया तो फुग़ां ने कहा को उन्होने तो इसे हक़ीर सी चीज़ समझ छोड़ दिया था. अब अगर फरमाइश है तो अभी हुआ जाता है.



उन्होने फौरन एक शेर पढ़ा :



जुगनू मियां की दुम जो चमकती है रात को

सब देख-देख उसको बजाते हैं तालियां



अब इसके बाद क्या हुआ होगा, यह भी कोई बताने की बात है ?


जानम समझा करो.


तालियां.

Friday, October 9, 2009

शशिन : जो सपना नहीं बनना चाहता था




पिछले महीने एक कार्यक्रम के सिलसिले में जबलपुर जाना हुआ. प्रसिद्ध रंगकर्मी मित्र अरुण पाण्डेय का भी साथ रहा. उन्होने एक बहुत ही बहुमूल्य चीज़ दी – शशिन की स्मृति में बरसों पहले प्रकाशित एक पुस्तिका. इस पुस्तक में शशिन के कुछ छाया चित्र, कविताएं हैं, संस्मरण हैं.

मैने अब तक शशिन का नाम भर सुना था. उसके कुछ चित्र सारिका में देखे थे. खासकर अक्टूबर 1969 का अंक जिसमें सारे रंगीन और सादे फोटो शशिन के ही थे. इससे ज़्यादा कुछ नहीं जानता था. इस पुस्तिका को पढ़ना शुरू किया तो लगा मैं एक बहुत ही खूबसूरत इंसान को जानने से महरूम रहा हूं. जितने सुन्दर ब्लैक एंड व्हाईट चित्र हैं उतनी ही सुन्दर कविताएं.

एक चित्र मैने भी इस पुस्तक को पढ़कर बनाया है. शशिन का चित्र. वह फिलहाल मेरे ज़हन में है. ज्यों-ज्यों इस पुस्तिका के पन्ने पलटता हूं, त्यों-त्यों इस चित्र के रंग और निखरने लगते हैं. जिस दिन यह तस्वीर पूरी हुई उस दिन उसे सबको दिखाऊंगा. फिलहाल तो हरिशंकर परसाई के शब्दों का ही सहारा ले रहा हूं.

“...‘प्रहरी’ दफ्तर में ही एक दिन शशिन से मेरा परिचय कराया गया – शशिन यादव उभरते हुए कलाकार. शशिन ने तब किशोरावस्था पार ही की थी – दाढ़ी के कुछ ही बाल आये थे. सिर पर लम्बे चमकीले घुंघराले केश, बड़ी-बड़ी भावुक और प्रखर आंखें. शशिन तब बात करते, उठते-बैठते, चित्राकंन करते, सीढ़ियां उतरते गुनगुनाते रहते थे. यह आदत शशिन में अंत तक बनी रही, गुनगुनाते रहना. वे जब बड़े चित्रकार हो गये तब भी मैं देखता – कैमरा जमाते, फोकस ठीक करते, भारी स्टाक में निगेटिव निकालते शशिन गुनगुनाते ही रहते. यहां तक होता कि बात करते-करते शशिन बेध्यान होकर गुनगुनाने लगते और सामने वाले को लगता कि मैं तो बात कर रहा हूं और वह अपने में डूबकर गा रहा है. संगीत का यह स्रोत शशिन में निरंतर झरता था और तब लगता था कि यह युवक संगीतज्ञ ही बनेगा”.

मगर
शशिन अपनी इस गुनगुनाहट के साथ काम में इस क़दर डूबा रहा कि उसे यह भी पता न चल सका कि कब मौत आकर उसके दरवाज़े ठहर गई. 18 जून 1976 के दिन जब उसकी मृत्यु हुई उस समय उसकी उम्र कुल 47 साल की थी.

सब कुछ तो नहीं, बस दो कविताए और शशिन का एक फोटो है, जिस पर लिखा है - मैं चाहता हूँ / लोग मेरे चित्रों से पूछें शशिन कौन है।

1.


मैं नहीं चाहता कि

तुम सपना बनो

मैं नहीं चाहता कि

मैं भी सपना बनूं

सत्य मैं हूं सत्य रहूं

सत्य तू है सत्य रहे

तेरे दुखों से मैं संवेदित होऊं

और मेरी व्यथा को

तुम समझो

इतना कुछ

कर लेंगे हम

तो अच्छा होगा


2.


आबज़रवेटरी

सात हज़ार छै: सौ अठयासी फुट ऊंची

रोमनों के टोपों से बने कुछ

गुंबजों से घिरी

आबज़रवेटरी ?

जी हां

जहां से ऊंचे, बहुत ऊंचे,

उस आसमां में फैले

सितारों की दुनिया में

आदमी

जबसे झांकना सीखा है

तो पर्वतों की चोटियों पर

बादलों से भी ऊंचे

आबज़रवेटरी बना कर

उसने ऊपर ही ऊपर देखना जाना है

ज़मीं की सारी बातें

जैसे वह भूल सा गया है


शशिन









Thursday, October 8, 2009

An Amazing clip

How do they do this ! An amazing clip।






Wednesday, October 7, 2009

एक सुबह कोहरे की








भोपाल में बुधवार की सुबह अदभुत कोहरा छाया था। कोई ५.३० बजे जब वाक पर निकला तो दूर-दूर तक सिवा कोहरे के कुछ दिखाई न देता था। अबा ऐसे में सिवाय रूमानी होने के और किया भी क्या जा सकता था। सो बस निकल पड़ा अपना कैमरा लेकर और अगले डेढ़ घंटे तक जो कुछ करता रहा बसा उसी के कुछ नतीजे ये रहे।

घर जला भाई का भाई से बुझाया न गया


इंसानी फितरत का भी कोई जवाब नहीं. जब, जिस हाल में रहे, उस समय,काल और हाल की शिकायत किए बिना रहा नहीं जाता. अब आप आज की हालत देखें. मुझ जैसे उम्र-रसीदा लोग नए ज़माने के नए माहौल,नए दौर की ऐसे धज्जियां उड़ाने को तुले रहते हैं कि बस अल्लाह रहम करे.


सच तो यह है कि जिस कल की दुहाई दे-दे कर नए को बुरा कहा जाता है, ज़रा उस की तरफ भी एक नज़र हो जाए. नहीं, मैं कोई रामायण और महाभारत की मिसालें देकर अपनी बात साबित करने वाला नहीं हूं. बहुत दूर क्यों जाना. बस कुल मिलाकर 60-70 साल ही पीच्छे चलना है. सो चलिए, चलते हैं 1930 और40 वाले दौर में.


हां, एक बात और. पहले से बता देता हूं. यह संगीत की दुनिया है. हम लोग इसी जगह से, इसी माध्यम से तब की दुनिया देखेंगे. देखेंगे क्या, हम तो वहां तक पहुंच गए है. सो देखिये,सुनिए,सोचिए.



आजकल भारतवासी अपने भारतवासी भाईयों के साथ कितनी हमदर्दी करते हैं और अपने ह्र्दय पर कितना विश्वास करते हैं.


घर जला भाई का भाई से बुझाया न गया

क़ौम के वास्ते दुख दर्द उठाया न गया

हां रे! अपनी कोठी में किये बिजली के तो रौशन लैम्प

देव मन्दिर में तो दिया भी जलाया न गया

आप जी भर के तो खाते मलाई माखन को (लेकिन)

सूखा टुकड़ा किसी भूके को खिलाया न गया

बहू बेटियों के लिये लाख उड़ा दीं मुहरें

(लेकिन धरम के लिये कोई मांगने को आ जाये तो क्या होता है?)

धरम के काम पैसा भी लगाया न गया

वैश्याओं को तो दें (कितनी हमदर्दी रखते हैं वैश्याओं के साथ और अपनी औरतों के साथ कितनी हमदर्दी रखते हैं)

वैश्याओं को तो दें साड़ियां रेशम की बहुत

धोती जोड़ा किसी विधवा को पिनाया न गया

ग़ैरों के आगे तो जा झुकते हैं कमानी की तरह

भूल कर सर कभी मन्दर में झुकाया न गया


दोस्तों, अपने ज़माने से नाराज़ ये आवाज़ पंडित वासदेव की है. मेरा मतलब यह उनकी आवाज़ मे गाया गया गीत है जो अन्दाज़न 30 या 40 के दशक में बने 78 आरपीएम रिकार्ड पर मौजूद है. अच्छा एक बात और बता दूं. यह जो ऊपर पहला जुमला है या फिर बीच में एक टिपणी है वह भी वासदेव जी की हे है मेरी नहीं.


इसी रिकार्ड के दूसरी तरफ क्या है ज़रा उसे भी सुनें. वही अपने पंडित वासदेव जी हैं दूसरी शिकायत लेकर.


ऊपर की तरह नीचे भी ग़ज़ल के बीच-बीच में, कहीं-कहीं शुरू में ही उनकी टिप्पणियां हैं.


हमारी प्राचीन चीज़ों को आजकल किस तरह से बरता जा रहा है. उनका क्या नाम रखकर उनसे क्या काम लिया जा रहा है :


सारी बहार गुलिस्ताने रीडर ने छीन ली

रोज़ी तो पंडितॉ की टीचर ने छीन ली

बेला,चमेली,चम्पा कोई अरे सूंघता नहीं

खुशबू-ए-अतर , बू-ए लवेंडर ने छीन ली

तासीरे अर्क नाना तासीरे बादियान

आईस्क्रीम,सोडा व जिंजर ने छीन ली

रथ बहलियों के नाम तो मबज़ूल हो गये

इनकी कमाई अंजन और मोटर ने छीन ली

वेदक हकीम को तो कोई पूछता नहीं

हिकम्मत जो इनकी थी वो डाक्टर ने छीन ली

रुमाल की बहार और गुलबंद की फबन

जो कुच्छ रही-सही थी वो मफलर ने छीन ली

क्या-क्या कहूं मैं जीवा यह कलयुग के चलन

हरकत जो बूज़मां थी वो मिस्टर ने छीन ली


यह तो हुई मज़े-मज़े में शिकायत की लेकिन कुच्छ तो यह बात उस दौर की है जिसे याद कर आज न जाने कितने लोग आहें भरते होंगे कि हाय क्या ज़माना था हमारा. इसलिए कहते हैं कि बुरे से बुरी चीज़ भी वक़्त गुज़रने के साथ अपनी बुराई खो देती है. कभी-कभी तो उसे याद कर हंसी भी आ जाती है. और उस दौर की थोड़ी सी अच्छी चीज़ भी वक़्त के साथ पककर इतनी मीठी लगने लगती है कि उसके बाद सारी दुनिया की चीज़ें बेस्वाद लगने लगती हैं।


(पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' में पूर्व प्रकाशित)

Sunday, October 4, 2009

इश्क करे ऊ जिसकी जेब में माल बारे बलमूं

60-70 के दशक की भोजपुरी फिल्मों में बहुत ही खूबसूरत गीत-संगीत रचा गया है. संगीतकार चित्रगुप्त की इसमें बड़ी महती भूमिका है. ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ (1962), ‘लागी नाहीं छूटे राम’ (1963), ‘बिदेसिया’ (1963), ‘कब होइहैं गवनवा हमार’(1964), ‘भौजी’ (1965) जैसी कई फिल्मों के गीत उस दौर में काफी तूफान किये रहे. आज भी इन गीतों को सुनने पर बहुत आनंद मिलता है.

फिल्म ‘बिदेसिया’ का एक बड़ा अदभुत गीत है – ‘इश्क़ करे ऊ जिसके जेब में माल बारे बलमूं’. राममूर्ति चतुर्वेदी जी के लिखे इस गीत को संगीतकार की एस.एन.त्रिपाठी के लिये भरपूर मस्ती में गाया है मन्ना दा और महेन्द्र कपूर ने. अब तक इस गीत को डिजिटाईज़ किया नहीं है सो उसे सुना तो नहीं सकता, बस मैं सुनाए भर देता हूं.


इश्क करे ऊ जिसकी जेब में माल बारे बलमूं
कदर गंवावै जो कड़का कंगाल बारे बलमूं
अरे इश्क करे ऊ जो दिल कै दिलदार बारे बलमूं
एजी राज़े इश्क क्या समुझै चुगुल गंवार बारे बलमूं

ज़र के बिना इश्क टें टें है, ज़र होवे तो जिगर बढ़ै
ज़र के बिना न रीझे गोरिया आशिक होय बेमौत मरै

ज़र तो चलता फिरता राही, आज रहै कल जावै रे
दिलवाला बारहों महीना हंसके फाग मनावै रे
दिलवालै के जगत करे इतबार बारे बलमूं
एजी राज़े इश्क क्या समझै....

बुरे बंदगी करते डर से , अच्छे गले लगावैं रे
दिलवाले हर दिल अज़ीज़ बन दुख-सुख में मुस्कावैं रे

भाए बंद औ बाप मतारी कोई भी न साथ करै
गांठ अगर पैसा न होवै जोरू भी न बात करै
पैसे पर इस जग के सारे कमाल बारे बलमूं
एजी कदर गवांवै ...

Saturday, October 3, 2009

आलों में लुप्त ज़िन्दगियों का भान : नवीन सागर


मैं अक्सर सोचता हूं एक कहानी लिखूं, जिसका नाम हो - नवीन सागर. एक कविता लिखूं, जिसका शीर्षक हो नवीन सागर. एक आवाज़ दूं नवीन !


अब तक यह कहानी नहीं लिखी. न ही यह कविता लिखी है और न ही पिछले नौ साल से यह आवाज़ दी है नवीन ! .


डर लगता है - वह कहानी नहीं पड़ेगा. डरता हूं वह कविता भी नहीं सुनेगा. आवाज़ तो बिल्कुल नहीं दूंगा. अगर जवाब में फिर वही जुमला सुनाई दे गया आ जा बे अन्दर आ जा तो क्या करूंगा ? मैं तो उस जगह का दरवाज़ा ही नहीं जानता जहां वो जा बैठा है. तब क्या करूंगा ? बेहतर है दिल की दिल में रखूं. वह तो हमेशा दावा करता था कि मेरे दिल की सारी बातें समझ जाता है. सो अब भी तो समझता होगा.


नवीन अदभुत कहानीकार था. विलक्षण कवि. अनोखा पेंटर. यह सब न भी कहता तो भी उसकी कविता सब कुछ कह जाती. वह सब भी जो मैं अब भी नहीं कह पा रहा हूं.


1. अच्छी सरकार


यह बहुत अच्छी सरकार है

इसके एक हाथ में सितार दूसरे में हथियार है

सितार बजाने और हथियार चलाने में

तजुर्बेकार है

.

इसका निशाना अचूक है

कानून की एड़ियों वाले जूते पहनकर

सड़क पर निशाना साधे खड़ी है

उसी सड़क से होकर मुझे

एक हत्या की गवाही के लिए जाना है .


मुझसे पहले

दरवाज़ा खोलकर मेरा इरादा

बाहर निकला

तुरंत गोली से मर कर गिरा .


मैने दरवाज़े से झांककर कहा

मुझे नहीं पता यह किसका इरादा रहा

इस तरह

मैं एक अच्छा नागरिक बना

फिर मैने झूम-झूम कर सितार सुना .


2. इस घर में


इस घर में घर से ज़्यादा धुआं

अन्धेरे से ज़्यादा अन्धेरा

दीवार से बड़ी दरार.


इस घर में मर्तबा बहुत

जिसमें से सांस लेने की आवाज़ लगातार

आलों में लुप्त ज़िन्दगियों का भान

चीज़ों में थकान.


इस घर में सब बेघर

इस घर में भटके हुए मेले

मकड़ी के जालो से लिपटे हुए

इस घर में

झुलसे हुए रंगों के धब्बे

सपनों की गर्द पर बच्चों की उंगलियों के निशान .


इस घर में नींद से बहुत लम्बी रात.


3. देना !


जिसने मेरा घर जलाया

उसे इतना बड़ा घर

देना कि बाहर निकलने को चले

पर निकल न पाये .


जिसने मुझे मारा

उसे सब देना

मृत्यु न देना .

जिसने मेरी रोटी छीनी

उसे रोटियों के समुद्र में फेंकना

और तूफान उठाना .


जिनसे मैं नहीं मिला

उनसे मिलवाना

मुझे इतनी दूर छोड़ आना

कि बराबर संसार में आता रहूं .


अगली बार

इतना प्रेम देना

कि कह सकूं : प्रेम करता हूं

और वह मेरे सामने हो .


(नवीन सागर २९.११.४८ - १४.०४.२०००)