‘सत्यकाम’ तुझे सलाम
एक ऐसे समय में जब सच और झूठ को लेकर झगड़े होना लगातार कम होते जा रहे हैं, मैं सच की बात करना चाहता हूं. सीधे-सीधे कहूं तो मैं कोई 40 साल पुरानी फिल्म ‘सत्यकाम’ (1969) की बात करने जा रहा हूं. और इस बात की शुरूआत मैं उसी कहानी से करूंगा जिससे इस फिल्म की शुरूआत होती है.
सत्यकाम ने गुरू गौतम के पास जाकर कहा : भगवन मुझे अपना शिष्य बनाइये.
गुरू गौतम ने पूछा : तुम्हारा गोत्र क्या है ?
सत्यकाम ने कहा : मां से मैने पूछा था. मां ने कहा बहुतों की सेवा करके तुम्हे पाया. इसलिए तुम्हारे पिता का नाम मैं नहीं जानती. लेकिन मेरा नाम जबाला है इसलिए तुम्हारा नाम जबाल सत्यकाम है. यही कह.
ऋषि गौतम ने सत्यकाम का सर चूमकर कहा : तुम्ही श्रेष्ठ बृह्मण हो. क्योंकि तुममे सत्य बोलने का साहस है.
तो मित्रों, यह थी वह पौराणिक कहानी जिसके साथ इस फिल्म की शुरूआत होती है. मगर सच तो यह है कि मेरे अन्दर आज तक न तो यह कहानी खत्म हुई है और न यह फिल्म. मैं खुद भले ही न सत्यकाम सा सत्यवादी बन पाया और न ही फिल्म के नायक सत्यप्रिय आचार्य जैसा महान आदर्शवादी, मगर वैसा हो पाने की ललक ज़रूर रही है. आज भी है. मैं जानता हूं मेरी तरह के असफल लोगों की एक बड़ी तादाद है. सो आज की बात उन सब के नाम.
सत्यप्रिय आचार्य यानि धर्मेन्द्र इंजीनियरिंग का छात्र है. वह एक ऐसे परिवार से आता है जिसमें पीढ़ियों से सत्य,धर्म और शुद्ध आचरण के प्रति घनघोर समर्पण है. पिता तो परिवार छोड़कर सन्यासी भी बन गए और ऋषिनुमा दादा के सानिध्य में बचपन गुज़रा है. सत्यप्रिय का सत्य के प्रति आग्रह और आचरण की शुद्धता दीवानगी की हद तक है. संजीव कुमार यानि नरेन उसका सहपाठी और सबसे नज़दीकी दोस्त है.
जिन लोगों को हमारे भ्रष्ट तंत्र की जानकारी है वे बखूबी जानते हैं कि इंजीनियर होने का अर्थ सबकी नज़रों में मलाईदार ओहदा है. राजनैतिक भ्रष्टाचार के भागीदार बनने को लालायित कुछ लोगों ने सारी कौम पर ऐसा लेबल चस्पा किया है कि हटाए नहीं हटता. जो इस लेबल से मुक्त होकर जीने की कोशिश करता है वह उसकी कीमत इस या उस रूप में ज़रूर चुकाता है. क्या उत्तर प्रदेश के ताज़ा इंजीनियर हत्याकाण्ड को भूल गए जिसने नेताओं को चन्दा देने से इंकार कर दिया था ? वही. लगभग वही हश्र इस सत्यप्रिय आचार्य का भी फिल्म में होता है. वह आखिर लड़ते-भिड़ते कैंसर का शिकार हो जाता है. शायद कथा लेखक नारायण सान्याल और निदेशक हृषिकेश मुखर्जी प्रतीक रूप में कहना चाहते थे कि भ्रष्टाचार बहुत बड़ा कैंसर है जो ईमान को खा जाता है.
पूरी कहानी विस्तार से तो नहीं सुनाना चाहता, आप सब खूब जानते हैं कि सत्यप्रिय जैसे लोगों की समाज में क्या दुर्दशा होती है और कैसे होती है. बात को ज़रा सलीके से आगे बड़ाने के लिए इतना भर ज़रूर बताऊंगा कि सत्यप्रिय ने अपने इसी नैतिक दबाव के तहत रंजना (शर्मिला टैगोर) से शादी की जबकि वह एक ठेकेदार की हवस का शिकार होकर गर्भवती हो चुकी थी. इसका कारण यह था कि उसने रंजना को उस समय ठेकेदार से बचाने की कोशिश नहीं की. शादी के बाद उसने रंजना, जो कि एक वैश्या की संतान है, न सिर्फ पत्नि का दर्जा दिया बल्कि उसके बेटे को भी अपना नाम दिया, वह भी बिना किसी अपेक्षा के.
फिल्म के अंत में दो बातें बड़ी खूबसूरती से दिखाई गई हैं. पहली तो यह कि वह ठेकेदार जिसने सत्यप्रिय के कारण पहले बहुत घाटा उठाया और फिर उसका तबादला करवा दिया, वही ठेकेदार आखिर में उसकी बीमारी में सबसे बड़ा सहारा बनकर खड़ा हो जाता है. कम से कम मैं इस बात को मानता हूं कि इंसान हरदम शैतान नहीं होता.
दूसरी बात फिल्म के अंत में सत्यप्रिय की मृत्यु के बाद की है. दादा (अशोक कुमार) जिसने इस विवाह और इस बच्चे को कभी स्वीकार नहीं किया, वह आखिर में एक सत्यकामनुमा सच के आगे नतमसत्क हो जाता है. क्योंकि वह बच्चा सार्वजनिक रूप से सामने आकर उनसे कहता है कि उसे पिता के संस्कार कर्म से वे इसलिए दूर रखना चाहते हैं क्योंकि वह उनके पोते का बेटा नहीं है. हैरतज़दा दादाजी अपने भगवा वस्त्रों और लहराती सफेद दाढ़ी में बेचैन होते पूछते हैं कि आखिर इतने छोटे से बच्चे को इतना कड़वा सच किसने बताया. ‘मां ने’. हर युग में मां जबाला और सत्यकाम तो होते ही रहेंगे फिर चाहे दुनिया भले ही उनको उनके सत्य रूप में पहचान न पाए.
...तुसी ग्रेट हो जी
इस फिल्म को देखकर बहुत परेशान हो जाता हूं मगर जी चाहता है कि ऐसी परेशानी को बार-बार सीने से लगा लूं ताकि जितना कुछ बच पाया है कम से कम वही बचा रह जाए. इस फिल्म से जुड़ा हर इंसान इतनी बलन्दी पे नज़र आता है कि बार-बार सजदे में झुकने को जी चाहता है. धर्मेन्द्र की तो मेरे हिसाब से यह ज़िन्दगी की बेहतरीन अदाकारी है. हृशिकेश मुखर्जी भी इसे अपने सबसे बेहतर काम में ही गिनेंगे लेकिन मैं इस जगह फिल्म के संवाद लेखक राजेन्द्र सिंह बेदी को सलाम करना चाहता हूं. वाह! क्या खूब संवाद लिखे हैं. ऐसा लगता है मानो हमारे समाज की पूरी की पूरी निर्लजता को खेंचकर चौराहे पर खड़ा कर दिया है कि लीजिए कीजिए अब इनका हिसाब. इसी के साथ यह भरोसा भी दिलाया है कि इंसान अभी भी भरोसे के क़ाबिल हो सकता है.
अब ज़रा इस एक मंज़र के संवाद देखें. ठेकेदार सप्रू , इंजीनियर सत्यप्रिय आचार्य से एक ऐसे नक्शे पर दस्तखत चाहता है जो उसने नहीं बनाया. इंकार पर एक ब्लैंक चेक़ देता है जिसे सत्यप्रिय रिश्वत कहकर ठुकराता है. इस पर सप्रू का संवाद है : ‘आप इसे रिश्वत कहते हैं. हुं ! इसके भी भगवान कृष्ण की तरह 108 नाम हैं, आचार्य साहब. दिल्ली में इसे दस्तूरी कहते है. बिहार में .....बंगाल में इसे बड़ी खुशी से कहते हैं पान खाने के दिए. तमिल और तेलगू में इस सुन्दरी को क्या कहते हैं मैं नहीं जानता. क्योंकि आप सचाई के पुतले हैं तो आपकी सहूलियत के लिए मैं इसका नाम आनरेरियम रखे देता हूं. लीजिये’.
धरम पा जी चेक फाड़ देते हैं. ‘...राय साहब, तमिल और तेलगू में तो इसका नाम मैं भी नहीं जानता मगर हर भाषा में इसका जवाब यही है’.
दूसरी जगह दूसरे ठेकेदार से विवाद होता है और हमारा हीरो फिर अपनी ठसक के साथ सच के पक्ष में खड़ा हो जाता है. उसके जाने के बाद ठेकेदार अपने मुनीमनुमा मुसाहिब से कहता है : ‘हर आदमी की अपनी-अपनी कीमत होती है’.
‘बहुत ही मुश्किल है सर! सुना है यह आदमी बहुत ही बदमाश और एक नम्बर का पाजी है. रिश्वत वगैरह नहीं खाता सर’.
संजीव कुमार अर्थात नरेन इस फिल्म के सूत्रधार भी हैं. एक जगह वो अपने अज़ीज़ दोस्त सत (धर्मेन्द्र) के बारे में कहता है ‘...ऐसा लगता था मानो उसका झगड़ा दुनिया से ही नहीं, खुद से भी है.’
क्या पते की बात की है. ऐसे लोगों का झगड़ा अक्सर बाहर वालों से ज़्यादा खुद से होता है. होता ही रहता है. और बस होता ही रहता है. और यह सच सिर्फ समझने वालों की ही समझ में आता है. या कहूं राजेन्द्र सिंह बेदी जैसे संवेदना वाले इंसानो की ही समझ में आता है.
और क्यों न हो. जो जैसा है, जहां है को स्वीकार करने वालों के बहुमत वाली इस काली दुनिया में उन्ही लोगों की मौजूदगी से उजाला है जो न्याय और अन्याय को ठीक से पहचानते हैं और न्याय के पक्ष में खुलम-खुला खड़े होकर सच बोल सकते हैं.
इस स्थिति पर सत्यप्रिय का एक संवाद आता है. “...मैं इंसान हूं. भगवान की सबसे बड़ी सृष्टि. मैं उसका प्रतिनिधि हूं. किसी अन्याय के साथ कभी सुलह नहीं करूंगा. कभी नहीं करूंगा’.
और...
जाते-जाते इस महान फिल्म के गीत संगीत की याद कर लूं. कैफी आज़मी साहब के गीत और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत. लता की आवाज़ में एक हसीन गीत है : ‘अभी क्या सुनोगे, सुना तो हंसोगे, कि है गीत अधूरा, तराना अधूरा’. मगर हंसी-हंसी में ज़िन्दगी की हंसी उड़ाता गीत है- ‘ज़िन्दगी है क्या, बोलो ज़िन्दगी है क्या’. जवाब में कोई इसे मोटर कहता है, कोई लट्टू. किसी ने कहा लस्सी, तो किसी ने इसे लड़की बयान किया. मुझे चरखा और बन्दर वाले जवाब ज़्यादा पसन्द हैं.
आपको क्या पसंद है ?
bahut sundar.baje wali gali mein aana-jana laga rahega....
ReplyDeleteबहुत खूब राजकुमार जी!
ReplyDeleteइस बाजे वाली सुरीली गली में आना जाना लगा रहेगा.. उम्मीद है कि संगीत प्रेमी इस गली में आके सुकून पायेंगे!
गली के शुरुआती छोर पे ही सत्यकाम बैठे हैं तो आगे के सफ़र का अन्दाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है!
ब्लॉग की दुनिया को कुछ ऐसा ही सुरीलापन दरकार था राज भाई.क्या ख़ूब बिसमिल्ला की आपने. सत्यकाम भारतीय चित्रपट संसार का अनमोल दस्तावेज़ है और शायद ये हमारी तहज़ीब और भारतीय सोच का वह उजला वरक़ है जिससे पूरी दुनिया में हमारी पहचान और इज़्ज़त है.
ReplyDeleteबहुत दुआएँ बाजे वाली गली को.....इसमें आकर यक़ीनन हमारे दिलोदिमाग़ महकते रहेंगे......आमीन.
हर शहर की तरह भोपाल में भी बाजे वाली गली है और बाजे का महत्व तो सुनने वाले से है, लेकिन सुनने वाले मिलते हैं बाजे के सुरों से निकलने वाले रस से ।
ReplyDeleteअच्छा रस निकाला है आपने सत्यकाम का। ईमानदारी से कबूल करता हूँ कि सत्यकाम मैने नहीं देखी, लेकिन इस प्रस्तुति को पढ़कर लगता है कि क्यों नहीं देखी ।
शायद तत्समय की पारिवारिक व्यवस्था बाधक रही होगी या तेरह चौदल वर्ष की उस समय की मेरी आयु में इसे देखने की चाह । कारण जो भी रहा हो लगता है मैं उस समय देख भी लेता तो इतनी गहराई से इसे समझ नहीं पाता जितना इस आलेख से समझना संभव हो सका है ।
salam aap ko bhee.
ReplyDeleteमैं इंसान हूं. भगवान की सबसे बड़ी सृष्टि. मैं उसका प्रतिनिधि हूं. किसी अन्याय के साथ कभी सुलह नहीं करूंगा. कभी नहीं करूंगा’.
humein bhee yehi pasand hai..
आपका स्वागत हैं।
ReplyDeleteSatyakam ki jai ho. Andherey mein ujale ka ehsaas aise hi barkaraar rahe.
ReplyDeletekeswaniji,
ReplyDeleteI had seen satyakam way back when it was just a
movie with a serious overtone but after reading
your take I feel the impact now.It was quite gripping.Baja bajne de
jayent
ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है।
ReplyDeleteबढिया है । सत्यकाम दूरदर्शनी ज़माने में देखी थी । तब रविवार की शाम एक उत्सव होती थी और हम अपनी पढ़ाई-वढ़ाई जल्दी से निपटाकर एकदम तैयार रहते थे । उसके बाद आज तक नहीं देखी । हां गाने जब तक सुनते हैं । आपका स्वागत है जी । अब मज़ा आएगा
ReplyDeleteEXCELLENT... Keswani ji. You have done full justice in your appraisal to this exemplary film. I have seen this film several times and still have a DVD with me . Dharmendra is superb in this film perhaps he is in his best appearance ever.. Another film, I am not recollecting the name at the moment, where there is a song, YA DIL KI SUNO DUNIYA WALO there is also Sharmila tagore in more or less dumb character speaking from Eyes only and Dharmendra with Shashikala is in his best.
ReplyDeleteYour touching version about Satykaam is excellent and go deep to heart.
R.P.Asthana
Gwalior
Janab
ReplyDeleteDesh ko mahan banane ka leye 5% Satykaamon ki Zarurat hai.Ah Satykaam mare ja rahe hain. Badr sb. ka sher hai
Ji bahut chahta hai sach bolen
Kya karen hosla nahi hota
Shaffkat
यह मेरी बहुत पसंदीदा पोस्ट है. मैं इसे बार-बार लौटकर पढता हूँ और आज ही मैंने इसे अपने फीड रीडर में स्टार भी दे दिया है.
ReplyDeleteऔर मुझे तो 'ज़िंदगी है लट्टू' वाला जवाब पसंद है. आपके जवाब भी जायज़ हैं.
आप आजकल पोस्टें क्यों नहीं लिख रहे?
thanx to Nishant for providing this link.
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