- राजकुमार केसवानी
इस दुनिया के दस्तूर इस क़दर उलझे हुए हैं कि मैं ख़ुद को सुलझाने में अक्सर नाकाम हो जाता हूं. पता नहीं क्या सही है और क्या ग़लत. ऐसे में जब-जब अपने फैसले ग़लत क़रार दे दिए जाते हैं तो बस मुस्कराकर आस्मान की तरफ देख लेता हूं.
लेकिन आज के मसले को लेकर मैं आपकी तरफ भी देखना चाहता हूं. बात ऐसी है कि मैं पिछले बहुत दिनों से परेशान सा हूं. कोई दो महीने पहले एक ख़बर सुनी कि मुम्बई में जुहू स्थित कब्रिस्तान में बने मधुबाला, मोहम्मद रफी,नौशाद और साहिर लुधियानवी के मकबरों को मिटा दिया गया है. वजह थी हर रोज़ आने वाले जनाज़ों के दफ्न के लिए जगह की कमी.
कब्रिस्तान के रख-रखाव के ज़िमेदार लोगों का जवाब है कि इस्लामी कानून के तहत यह जायज़ है. दूसरे सरकार से बार-बार के तक़ादे के बावजूद पास ही ख़ाली पड़ी ज़मीन उन्हें अलाट नहीं की जा रही है.
अब आप ही बताइये अपनी ज़िन्दगी के इन सहारों के निशानात तक उजड़ जाने की शिकायत किससे करूं ?
आस्मान से ?
वो तो करके देख चुका हूं. वहां से तो जवाब में भी एक मुस्कराहट ही मिली है, जिसका मतलब पता नहीं मैने क्या समझा है और पता नहीं है क्या.
ख़ैर. जैसी उसकी मर्ज़ी. मेरे पास सिवाय सब्र के कोई रास्ता नहीं. बल्कि सब्र के साथ अपने हिस्से का काम करने के. सो करता हूं.
...जो ज़िन्दगी भर कम सोया
अब से कोई 75 बरस पहले एक बहादुर औरत अपने 13 साल के बच्चे के साथ अपने पतित और अत्याचारी पत्ति का महलनुमा घर छोड़कर एक मामूली से मकान में रहने चली आई. यह घर रेल पटरी के पास था. जब कभी ट्रेन पटरी पर दौड़ती तो उसकी थरथराहट से सारा घर साथ ही कांपने लगता था. आसपास बसी कोयले बीनने वाली औरतों और दीगर मज़दूरी करने वालों की झुगियां भी इसके ज़द में आतीं.
यह सब मेरी इस उम्र से बहुत पहले की बात है लिहाज़ा मैं वहां मौजूद तो न था. लेकिन हां, अपने बाप के उस ठाठदार घर से बाहर निकलकर आए हुए उस 13 साल के बच्चे की हालत को लेकर तरह-तरह के क़यास लगाता रहा हूं. इनमें से एक हकीक़त के ज़्यादा करीब लगता है. ‘बच्चा डरकर मां से चिपट जाता था और ट्रेन की आवाज़ दूर तक ओझल हो जाने के बाद ख़ौफज़दा आंखों में ढेर सारे सवालों के साथ से मां को निहारता था’.
यह मुझे इसलिए ठीक लगता है कि जब इस बच्चे ने आगे चलकर अपनी उम्र में कामयाबी हासिल की. दौलत कमाई. महल बनाए. शोहरत की बुलन्दी पर बैठा रहा, तब भी उसने अपनी मां का दामन न छोड़ा. और जब मां ने एक दिन दामन छुड़ा ही लिया तो उसने भी इस दुनिया से किनारा करने में बहुत देर नहीं की.
इस बच्चे का जब जन्म हुआ था तो बाप ने नाम रखा था अब्दुल हई. ख़ुद ने होश सम्हाला तो उसने अब्दुल हई होने की जगह ख़ुद को ‘साहिर’ बना लिया. साहिर मतलब जादूगर. लुधियाना का यह ‘साहिर’ शब्दों का जादूगर था. और ऐसा जादूगर कि उसका जादू आज भी ज़माने के सर चढ़कर बोलता है. ऐसे में ही ज़बान से निकल जाता है : वाह! साहिर लुधियानवी, वाह!’.
एक मिनट. मुझे लगता है कि अब ज़रा इस बात को एकदम पहले सिरे से ही शुरू करूं. तो बात ऐसी है कि लुधियाना के अमीर ज़मींदार थे फज़ल दीन. बहुत ही ऐयाश और ज़ालिम तबीयत इंसान. 8 मार्च 1921 को उनकी पत्नी सरदार बेगम ने एक बच्चे को जन्म दिया. जब उन्हें मालूम हुआ कि उनके घर में बेटे की आमद हुई है तो वह बहुत ख़ुश हुए. यह ख़ुशी हर मां-बाप को होने वाली ख़ुशी से कुछ अलग थी.
किस्सा यूं है कि फज़ल दीन का अब्दुल हई नाम के एक व्यक्ति से ज़बर्दस्त दुश्मनी थी. वह व्यक्ति पंजाब का एक बहुत ही ताकतवर नेता था, जो पड़ोस में ही रहता था.फज़ल दीन उसको मिटा देना चाहता था लेकिन उसका बस न चलता था. सो बेटे की ख़बर मिली तो उसने फौरन उसका नाम रख दिया अब्दुल हई. इसके बाद हर कभी अपने ही बेटे को ऊंची आवाज़ में, पड़ौसी को सुनाकर, पंजाबी की मोटी-मोटी गालियां देता और ख़ुश होता कि उसने अपने दुश्मन को ज़लील कर लिया.
ऐसे ज़ालिम और क्रूर इंसान के साथ सरदारी बेगम का निबाह भी कितने दिन होना था ? ख़ासकर तब जब वह आए दिन शादियां करने का शौक़ रखता हो. फज़ल दीन ने कुल मिलाकर 14 शादियां कीं. सो आख़िर एक दिन तलाक़ लेकर सरदार बेगम अपने बच्चे के साथ घर छोड़ आई.
हई, फज़ल दीन का इकलौता बेटा था, सो उसका जाना उसे मंज़ूर न था. जब अदालत ने फैसला मां के पक्ष में दिया तो उसने बच्चे को ज़बर्दस्ती छीनने और नाकाम होने पर बच्चे को मार डालने तक का ऐलान कर दिया. ऐसे में उस लाचार मगर मज़बूत इरादे वाली मां सरदारी बेगम ने अपने बच्चे को किसी घड़ी अकेले न रहने दिया.
मैं इस जगह आपसे अपनी तरफ से एक बात कहना चाहता हूं. इस सारे घटनाक्रम और हालात पर ज़रा ग़ौर करें और सोचें इस वक़्त उस बच्चे के दिल-दिमाग़ पर किस तरह के असर पड़ रहे होंगे. हर वक़्त ख़ौफ और दहशत के साए में जीने वाला यह बच्चा बड़ा होकर किस मनोविज्ञान का मरीज़ होगा ?
इसका जवाब उन सब लोगों के पास मौजूद है जिन्होने साहिर को उसकी कामयाबी के दौर में देखा. वे कभी अकेले बाहर नहीं जाते थे. कभी सरदार जाफरी तो कभी जां निसार अख़्तर. मगर किसी न किसी का साथ होना ज़रूरी था. वरना घर पर ही ‘मां जी’ के पास रहना पसन्द करते.
चलिए. यह तो हम थोड़ा कहानी की उस हद से बाहर चले आए. हम तो अभी साहिर के उस मुश्किल उम्र की बात कर रहे थे जब उसके अन्दर के शायर ने पहली बार अन्दर से आवाज़ दी तो नज़्म की सूरत में लफ्ज़ निकले – ‘कसम उन तंग गलियों की जहां मज़दूर रहते हैं’.
भूख,ग़रीबी,लाचारी से भरी इन्हीं तंग गलियों से निकल कर साहिर लुधियाना के खालसा हाई स्कूल और फिर गवर्नमेंट कालेज में तालीम हासिल करते रहे. जिस्म के साथ तमनाएं भी जवान होती चली गईं. शायर थे सो अपनी ग़ज़लों और नज़्मों के नाम से लड़कियों में ख़ासे पापुलर थे.
इस अहसास के साथ कौन होगा जिस पर आशिक़ी का रंग न चढ़े. सो चढ़ा. और ख़ूब चढ़ा. ख़ूब इश्क़ हुए. पहले पहल प्रेम चौधरी. जिसके बाप शायद काफी ऊंचे ओहदे पर थे और उन्हें यह रिश्ता मज़ूर न था. दिल टूटा. बाद को प्रेम चौधरी की भरी जवानी में ही मौत हो गई. दिल पर एक और चोट हुई. उसी की याद में साहिर ने नज़्म लिखी ‘मरघट’.
फिर आई, लाहौर की ईशर कौर. दोनो का बहुत वक़्त साथ गुज़रा. फिर साहिर 1949 में बम्बई चले गए तो ईशर कौर वहां भी जा पहुंची, मगर साहिर शादी का फैसला न कर सके. उसके बाद अमृता प्रीतम. यहां भी इज़हारे-इश्क़ अमृता जी की तरफ से ही मज़बूती से होता रहा.
उसके बाद तो न जाने कितने नाम हैं. लेकिन एक मामला ऐसा भी था जिसमें बात मंगनी और शादी तक पहुंच गई थी. बकौल उनके बचपन के एक दोस्त, पाकिस्तान के मशहूर कालम नवीस हमीद अख़्तर, साहिर की मंगनी उर्दू की कहानीकार हाजरा मसरूर से हो गई थी. मां से इजाज़त लेने के लिए भी इसी दोस्त को आगे किया. मां ने भी अपनी मंज़ूरी दे दी. मगर फिर न जाने क्या हुआ और साहिर ने अपना इरादा बदल दिया.
अगर इश्क़-ओ-मोहब्बत में ये आलम था तो ज़िन्दगी के बाकी कामों में भी हालात इससे बेहतर न थे. बड़े से बड़े और मामूली से मामूली फैसलों में भी अटक जाते और किसी दोस्त की मदद दरकार होती.
1943 में साहिर अपनी शायरी का पहला संकलन ‘तल्ख़ियां’ छपवाने लाहौर जा पहुंचे थे. ‘तल्ख़ियां’ के छपने में दो साल लग गए. इसी बीच वे बतौर सम्पादक उर्दू पत्रिका ‘अदबे-लतीफ’, ‘शाहकार’ और ‘सवेरा’ के लिए काम करते रहे. बंटवारे के वक़्त भी वे पहले लाहौर में ही रहे. ‘सवेरा’ में अपनी तल्ख़ कलम से पाकिस्तान सरकार को इस क़दर नाराज़ कर दिया कि उनके ख़िलाफ गिरफतारी वारंट जारी हो हो गया.
साहिर लाहौर छोड़कर दिल्ली आ गए. और फिर अपने ख़्वाब को हक़ीक़त में बदलने बम्बई जा पहुंचे. उनका ख़्वाब था फिल्मों में गीत लिखना. और सिर्फ गीत लिखना ही नहीं सबसे आला किस्म के गीत लिखना.
बम्बई और ख़ासकर बम्बई की फिल्मी दुनिया यूं तो हज़ारों संगदिली की दास्तानों की खान है लेकिन हर कहानी का अंजाम इस दुनिया में न हुआ है और न होगा. सो साहिर की कहानी काफी ख़ुशगवार कहानी है. 1948 में एक फिल्म बनी थी ‘आज़ादी की राह पर’. इस फिल्म में साहिर के 4 गीत थे. पहला गीत था ‘ बदल रही है ज़िन्दगी, बदल रही है ज़िन्दगी’.
1951 में ए.आर.कारदार की फिल्म ‘नौजवान’ में संगीतकार एस.डी.बर्मन ने उन्हें पूरी फिल्म लिखने का मौका दिया. नतीजा है आज तक सदाबहार गीतों में शामिल लत्ता मंगेशकर ‘ठंडी हवाएं, लहरा के आएं ‘.
1945 में ‘तल्ख़ियां’ के प्रकाशन ने साहिर को बतौर शायर काफी ऊंचा रुतबा दे दिया था. बम्बई पहुंचे तो गीतकार प्रेम धवन जो पहले से फिल्मों में जमे हुए थे, साहिर के मददगार बनकर सामने आ गए. साहिर कोई चार महीने तक प्रेम धवन के घर पर टिके रहे. इधर प्रेम धवन साहिर का संग्रह ‘तल्ख़ियां’ लेकर निर्माताओं और संगीतकारों को मौका देने की सिफारिश करते रहे. इसी कोशिश का नतीजा था फिल्म ‘दोराहा’ में साहिर का इकलौता गीत ‘मोहब्बत तर्क की मैने गिरेबां सी लिया मैने / ज़माने अब तो ख़ुस हो ज़हर ये भी पी लिया मैने’(तलत महमूद). इस फिल्म के बाकी सारे गीत प्रेम धवन पहले ही लिख चुके थे.
अब इसके बाद तो साहिर ने क्या किया, यह तो इतिहास है. कभी न भुलाया जा सकने वाला इतिहास. अगली बार उसी इतिहास के साथ याद करेंगे साहिर की ख़ूबसूरत शायरे से भरे गीतों को.
और...
और यह कि ऊपर जो लाईन आपने पढ़ी वो कैफी आज़मी जी ने साहिर साहब की मौत पर लिखी उनकी ग़ज़ल का मतला है.
तुम्हारे शहर में आए हैं हम, साहिर तुम कहां हो ?
ये रूह-पोशी तुम्हारी है सितम, साहिर कहां हो तुम ?
अगले हफ्ते हम मिलकर ढूढेंगे साहिर के हर मुमकिन निशान को। हर मुमकिन बात को. तब तक. जय-जय.
(दैनिक भास्कर के रविवारीय परिशिष्ट रसरंग में 11 अप्रेल 2010 को प्रकाशित)