Saturday, July 3, 2010

‘तुम्हारे शहर में आए हैं हम, साहिर कहां हो तुम’


- राजकुमार केसवानी


इस दुनिया के दस्तूर इस क़दर उलझे हुए हैं कि मैं ख़ुद को सुलझाने में अक्सर नाकाम हो जाता हूं. पता नहीं क्या सही है और क्या ग़लत. ऐसे में जब-जब अपने फैसले ग़लत क़रार दे दिए जाते हैं तो बस मुस्कराकर आस्मान की तरफ देख लेता हूं.


लेकिन आज के मसले को लेकर मैं आपकी तरफ भी देखना चाहता हूं. बात ऐसी है कि मैं पिछले बहुत दिनों से परेशान सा हूं. कोई दो महीने पहले एक ख़बर सुनी कि मुम्बई में जुहू स्थित कब्रिस्तान में बने मधुबाला, मोहम्मद रफी,नौशाद और साहिर लुधियानवी के मकबरों को मिटा दिया गया है. वजह थी हर रोज़ आने वाले जनाज़ों के दफ्न के लिए जगह की कमी.

कब्रिस्तान के रख-रखाव के ज़िमेदार लोगों का जवाब है कि इस्लामी कानून के तहत यह जायज़ है. दूसरे सरकार से बार-बार के तक़ादे के बावजूद पास ही ख़ाली पड़ी ज़मीन उन्हें अलाट नहीं की जा रही है.


अब आप ही बताइये अपनी ज़िन्दगी के इन सहारों के निशानात तक उजड़ जाने की शिकायत किससे करूं ?


आस्मान से ?


वो तो करके देख चुका हूं. वहां से तो जवाब में भी एक मुस्कराहट ही मिली है, जिसका मतलब पता नहीं मैने क्या समझा है और पता नहीं है क्या.

ख़ैर. जैसी उसकी मर्ज़ी. मेरे पास सिवाय सब्र के कोई रास्ता नहीं. बल्कि सब्र के साथ अपने हिस्से का काम करने के. सो करता हूं.


...जो ज़िन्दगी भर कम सोया


अब से कोई 75 बरस पहले एक बहादुर औरत अपने 13 साल के बच्चे के साथ अपने पतित और अत्याचारी पत्ति का महलनुमा घर छोड़कर एक मामूली से मकान में रहने चली आई. यह घर रेल पटरी के पास था. जब कभी ट्रेन पटरी पर दौड़ती तो उसकी थरथराहट से सारा घर साथ ही कांपने लगता था. आसपास बसी कोयले बीनने वाली औरतों और दीगर मज़दूरी करने वालों की झुगियां भी इसके ज़द में आतीं.


यह सब मेरी इस उम्र से बहुत पहले की बात है लिहाज़ा मैं वहां मौजूद तो न था. लेकिन हां, अपने बाप के उस ठाठदार घर से बाहर निकलकर आए हुए उस 13 साल के बच्चे की हालत को लेकर तरह-तरह के क़यास लगाता रहा हूं. इनमें से एक हकीक़त के ज़्यादा करीब लगता है. बच्चा डरकर मां से चिपट जाता था और ट्रेन की आवाज़ दूर तक ओझल हो जाने के बाद ख़ौफज़दा आंखों में ढेर सारे सवालों के साथ से मां को निहारता था.


यह मुझे इसलिए ठीक लगता है कि जब इस बच्चे ने आगे चलकर अपनी उम्र में कामयाबी हासिल की. दौलत कमाई. महल बनाए. शोहरत की बुलन्दी पर बैठा रहा, तब भी उसने अपनी मां का दामन न छोड़ा. और जब मां ने एक दिन दामन छुड़ा ही लिया तो उसने भी इस दुनिया से किनारा करने में बहुत देर नहीं की.


इस बच्चे का जब जन्म हुआ था तो बाप ने नाम रखा था अब्दुल हई. ख़ुद ने होश सम्हाला तो उसने अब्दुल हई होने की जगह ख़ुद को साहिर बना लिया. साहिर मतलब जादूगर. लुधियाना का यह साहिर शब्दों का जादूगर था. और ऐसा जादूगर कि उसका जादू आज भी ज़माने के सर चढ़कर बोलता है. ऐसे में ही ज़बान से निकल जाता है : वाह! साहिर लुधियानवी, वाह!.


एक मिनट. मुझे लगता है कि अब ज़रा इस बात को एकदम पहले सिरे से ही शुरू करूं. तो बात ऐसी है कि लुधियाना के अमीर ज़मींदार थे फज़ल दीन. बहुत ही ऐयाश और ज़ालिम तबीयत इंसान. 8 मार्च 1921 को उनकी पत्नी सरदार बेगम ने एक बच्चे को जन्म दिया. जब उन्हें मालूम हुआ कि उनके घर में बेटे की आमद हुई है तो वह बहुत ख़ुश हुए. यह ख़ुशी हर मां-बाप को होने वाली ख़ुशी से कुछ अलग थी.


किस्सा यूं है कि फज़ल दीन का अब्दुल हई नाम के एक व्यक्ति से ज़बर्दस्त दुश्मनी थी. वह व्यक्ति पंजाब का एक बहुत ही ताकतवर नेता था, जो पड़ोस में ही रहता था.फज़ल दीन उसको मिटा देना चाहता था लेकिन उसका बस न चलता था. सो बेटे की ख़बर मिली तो उसने फौरन उसका नाम रख दिया अब्दुल हई. इसके बाद हर कभी अपने ही बेटे को ऊंची आवाज़ में, पड़ौसी को सुनाकर, पंजाबी की मोटी-मोटी गालियां देता और ख़ुश होता कि उसने अपने दुश्मन को ज़लील कर लिया.


ऐसे ज़ालिम और क्रूर इंसान के साथ सरदारी बेगम का निबाह भी कितने दिन होना था ? ख़ासकर तब जब वह आए दिन शादियां करने का शौक़ रखता हो. फज़ल दीन ने कुल मिलाकर 14 शादियां कीं. सो आख़िर एक दिन तलाक़ लेकर सरदार बेगम अपने बच्चे के साथ घर छोड़ आई.


हई, फज़ल दीन का इकलौता बेटा था, सो उसका जाना उसे मंज़ूर न था. जब अदालत ने फैसला मां के पक्ष में दिया तो उसने बच्चे को ज़बर्दस्ती छीनने और नाकाम होने पर बच्चे को मार डालने तक का ऐलान कर दिया. ऐसे में उस लाचार मगर मज़बूत इरादे वाली मां सरदारी बेगम ने अपने बच्चे को किसी घड़ी अकेले न रहने दिया.


मैं इस जगह आपसे अपनी तरफ से एक बात कहना चाहता हूं. इस सारे घटनाक्रम और हालात पर ज़रा ग़ौर करें और सोचें इस वक़्त उस बच्चे के दिल-दिमाग़ पर किस तरह के असर पड़ रहे होंगे. हर वक़्त ख़ौफ और दहशत के साए में जीने वाला यह बच्चा बड़ा होकर किस मनोविज्ञान का मरीज़ होगा ?


इसका जवाब उन सब लोगों के पास मौजूद है जिन्होने साहिर को उसकी कामयाबी के दौर में देखा. वे कभी अकेले बाहर नहीं जाते थे. कभी सरदार जाफरी तो कभी जां निसार अख़्तर. मगर किसी न किसी का साथ होना ज़रूरी था. वरना घर पर ही मां जी के पास रहना पसन्द करते.


चलिए. यह तो हम थोड़ा कहानी की उस हद से बाहर चले आए. हम तो अभी साहिर के उस मुश्किल उम्र की बात कर रहे थे जब उसके अन्दर के शायर ने पहली बार अन्दर से आवाज़ दी तो नज़्म की सूरत में लफ्ज़ निकले कसम उन तंग गलियों की जहां मज़दूर रहते हैं.


भूख,ग़रीबी,लाचारी से भरी इन्हीं तंग गलियों से निकल कर साहिर लुधियाना के खालसा हाई स्कूल और फिर गवर्नमेंट कालेज में तालीम हासिल करते रहे. जिस्म के साथ तमनाएं भी जवान होती चली गईं. शायर थे सो अपनी ग़ज़लों और नज़्मों के नाम से लड़कियों में ख़ासे पापुलर थे.


इस अहसास के साथ कौन होगा जिस पर आशिक़ी का रंग न चढ़े. सो चढ़ा. और ख़ूब चढ़ा. ख़ूब इश्क़ हुए. पहले पहल प्रेम चौधरी. जिसके बाप शायद काफी ऊंचे ओहदे पर थे और उन्हें यह रिश्ता मज़ूर न था. दिल टूटा. बाद को प्रेम चौधरी की भरी जवानी में ही मौत हो गई. दिल पर एक और चोट हुई. उसी की याद में साहिर ने नज़्म लिखी मरघट.


फिर आई, लाहौर की ईशर कौर. दोनो का बहुत वक़्त साथ गुज़रा. फिर साहिर 1949 में बम्बई चले गए तो ईशर कौर वहां भी जा पहुंची, मगर साहिर शादी का फैसला न कर सके. उसके बाद अमृता प्रीतम. यहां भी इज़हारे-इश्क़ अमृता जी की तरफ से ही मज़बूती से होता रहा.


उसके बाद तो न जाने कितने नाम हैं. लेकिन एक मामला ऐसा भी था जिसमें बात मंगनी और शादी तक पहुंच गई थी. बकौल उनके बचपन के एक दोस्त, पाकिस्तान के मशहूर कालम नवीस हमीद अख़्तर, साहिर की मंगनी उर्दू की कहानीकार हाजरा मसरूर से हो गई थी. मां से इजाज़त लेने के लिए भी इसी दोस्त को आगे किया. मां ने भी अपनी मंज़ूरी दे दी. मगर फिर न जाने क्या हुआ और साहिर ने अपना इरादा बदल दिया.


अगर इश्क़-ओ-मोहब्बत में ये आलम था तो ज़िन्दगी के बाकी कामों में भी हालात इससे बेहतर न थे. बड़े से बड़े और मामूली से मामूली फैसलों में भी अटक जाते और किसी दोस्त की मदद दरकार होती.

1943 में साहिर अपनी शायरी का पहला संकलन तल्ख़ियां छपवाने लाहौर जा पहुंचे थे. तल्ख़ियां के छपने में दो साल लग गए. इसी बीच वे बतौर सम्पादक उर्दू पत्रिका अदबे-लतीफ, शाहकार और सवेरा के लिए काम करते रहे. बंटवारे के वक़्त भी वे पहले लाहौर में ही रहे. सवेरा में अपनी तल्ख़ कलम से पाकिस्तान सरकार को इस क़दर नाराज़ कर दिया कि उनके ख़िलाफ गिरफतारी वारंट जारी हो हो गया.


साहिर लाहौर छोड़कर दिल्ली आ गए. और फिर अपने ख़्वाब को हक़ीक़त में बदलने बम्बई जा पहुंचे. उनका ख़्वाब था फिल्मों में गीत लिखना. और सिर्फ गीत लिखना ही नहीं सबसे आला किस्म के गीत लिखना.


बम्बई और ख़ासकर बम्बई की फिल्मी दुनिया यूं तो हज़ारों संगदिली की दास्तानों की खान है लेकिन हर कहानी का अंजाम इस दुनिया में न हुआ है और न होगा. सो साहिर की कहानी काफी ख़ुशगवार कहानी है. 1948 में एक फिल्म बनी थी आज़ादी की राह पर. इस फिल्म में साहिर के 4 गीत थे. पहला गीत था बदल रही है ज़िन्दगी, बदल रही है ज़िन्दगी.


1951 में ए.आर.कारदार की फिल्म नौजवान में संगीतकार एस.डी.बर्मन ने उन्हें पूरी फिल्म लिखने का मौका दिया. नतीजा है आज तक सदाबहार गीतों में शामिल लत्ता मंगेशकर ठंडी हवाएं, लहरा के आएं .

1945 में तल्ख़ियां के प्रकाशन ने साहिर को बतौर शायर काफी ऊंचा रुतबा दे दिया था. बम्बई पहुंचे तो गीतकार प्रेम धवन जो पहले से फिल्मों में जमे हुए थे, साहिर के मददगार बनकर सामने आ गए. साहिर कोई चार महीने तक प्रेम धवन के घर पर टिके रहे. इधर प्रेम धवन साहिर का संग्रह तल्ख़ियां लेकर निर्माताओं और संगीतकारों को मौका देने की सिफारिश करते रहे. इसी कोशिश का नतीजा था फिल्म दोराहा में साहिर का इकलौता गीत मोहब्बत तर्क की मैने गिरेबां सी लिया मैने / ज़माने अब तो ख़ुस हो ज़हर ये भी पी लिया मैने(तलत महमूद). इस फिल्म के बाकी सारे गीत प्रेम धवन पहले ही लिख चुके थे.


अब इसके बाद तो साहिर ने क्या किया, यह तो इतिहास है. कभी न भुलाया जा सकने वाला इतिहास. अगली बार उसी इतिहास के साथ याद करेंगे साहिर की ख़ूबसूरत शायरे से भरे गीतों को.


और...


और यह कि ऊपर जो लाईन आपने पढ़ी वो कैफी आज़मी जी ने साहिर साहब की मौत पर लिखी उनकी ग़ज़ल का मतला है.


तुम्हारे शहर में आए हैं हम, साहिर तुम कहां हो ?

ये रूह-पोशी तुम्हारी है सितम, साहिर कहां हो तुम ?


अगले हफ्ते हम मिलकर ढूढेंगे साहिर के हर मुमकिन निशान को। हर मुमकिन बात को. तब तक. जय-जय.


(दैनिक भास्कर के रविवारीय परिशिष्ट रसरंग में 11 अप्रेल 2010 को प्रकाशित)



Monday, May 17, 2010

ज़माना गुज़रा है अपना ख़याल आए हुए

मैं अपनी हज़ार चीज़ों से ख़फा हूं - अपनी सूरत से. अपनी आदतों से. अपने अलालपन से. अपने सपनों से.

लोग कहते हैं इंसान के भेजे में भेजा होता है। मुझे लगता है मेरे भेजे में सिर्फ कबाड़खाना है. किसी भगोड़े फिल्मकार का कबाड़खाना. एक ऐसा फिल्मकार जिसने ज़िन्दगी के न जाने कितने लम्हों को अलग-अलग वक्तों के दौरान कभी इंसानी शक्लों में तो कभी ग़ैर-इंसानी शक्लों में अपनी रील पर उतार लिया और इस कबाड़खाने में डम्प कर दिया है.

सोचता हूं अगर अछा कवि होता तो इन फिल्मों को सुन्दर कविताओं में बदल लेता। अछा कथाकार होता तो कम से कम एक ख़ूबसूरत कहानी ही बना लेता. एक अछा एडीटर होता तो इस कबाड़े की फिल्मों में से कुछ मंज़र जोड़कर पहले न बनी एक फिल्म जैसी कोई फिल्म बना लेता.

गर यूं होता तो क्या होता ?

मैं तो कहता हूं जो होता तो क्यों होता ? आखिर मुझे पता ही क्या है कि क्या हो रहा है। मतलब ख़ुद अपने बारे में भी नहीं कह सकता कि क्या हो रहा है. बाहर की तो मैं जानता हूं अन्दर की मुझे क्या ख़बर।

Wednesday, January 6, 2010

Allen Ginsberg - America


एलेन गिंसबर्ग अपनी प्रसिद्ध कविता 'अमेरीका' (अमरीका) का जिस तरह पाठ करते थे, उसे सुनकर कविता की ताकत का अंदाजा होने लगता है। एक कवि किस तरह अपने देश, अपने समाज की अवांछित स्थितियों, प्रवृतियों के विरुद्ध अपनी कविता को एक असरदार हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकता है, यह कविता उसी की एक मिसाल है।

पिछली बार कुछ मित्रों ने प्लेयर की शिकायत की थी। मेरा अनुरोध है की अगर मोज़िला पर यहाँ प्लेयर दिखाई न दे तो प्लीज़ एक्स्प्लोरर का इस्तेमाल कर देखें।


Monday, January 4, 2010

टी.एस.इलियट - अ गेम आफ चेस

लीजिये पेश है टी.एस.इलियट की ‘वेस्टलैंड’ का दूसरा भाग – ‘अ गेम आफ चेस’.



टी.एस.इलियट - कविता पाठ

इस ख़ूबसूरत चीज़ को अकेले सुनते-सुनते जी चाहा की आप सबके साथ इसे शेयर करूँ । सो हाज़िर है
टी.एस. इलियट की आवाज़ में ही उनकी 'वेस्ट लैंड' कविता का पहला भाग।


Thursday, December 31, 2009

नव वर्ष की शुभकामनाएं

२०१० सभी के लिए मंगलमय हो


राजकुमार केसवानी


Friday, December 11, 2009

तस्वीर-ए-लापता : दिलीप चित्रे


कोई तीन साल पहले दिलीप भाई का एक मेल आया जिसमें उन्होने उन्होने अपनी एक सीधे उर्दू में लिखी गई छोटी सी नज़्म भेजी थी. आज उस तस्वीर-ए-लापता को पढ़ता हूं तो तब न समझ में आने वाली बातें समझ में आ रही हैं.

मैं यहां सभी दोस्तों के लिए उस मेल के कुछ ज़रूरी हिस्सों के साथ जस का तस पेश कर रहा हूं.

इसी के साथ चित्रे जी की एक पेंटिंग भी हैं.

Date: 21 May 2006 09:31:22 -0700

tasveer-e-lapatah hain yeh ...
mayoosi ke ek khaufnaak daur se guzaraa hoon main,
wahshat ki syah raahon se guzraa hoon main,
ab bas yahi chaahataa hoon ke main
jo mere hamdam hain unko bayan karoon
mere jahannum ke safar ki chand jhalaken...

(तस्वीर-ए-लापता है ये
मायूसी के एक ख़ौफनाक दौर से गुज़रा हूं मैं
वहशत की स्याह रातों से गुज़रा हूं मैं
अब बस यही चाहता हूं कि मैं
जो मेरे हमदम हैं उनको बयान करूं
मेरे जहनुम के सफर की चंद झलकें...)

...maine mere aziz dost Gulzaar Saheb ko ek chotisee nazm pesh ki thi, taaki apne marz aur dard ka unhe pata bata sakoon. Aaj mein uski naql aap ko e-mail se hi forward kar rahaa hoon.

Filhaal,
Khudaa Haafiz !

Wednesday, December 9, 2009

दिलीप चित्रे नहीं रहे !


आख़िर कोई ख़बर इतनी बुरी कैसे हो सकती है ? इतनी बुरी कि वह कहने लगे कि दिलीप चित्रे नहीं रहे !


इतनी बुरी ख़बरों का गला क्यों नहीं घोंट दिया जाता ?


ऐसी तमाम बुरी ख़बरों को पैदा होने की इजाज़त नहीं मिलनी चाहिए जो दुनिया की हर अच्छी चीज़ को मौत देती हों.

कुछ देर पहले ही उदय प्रकाश ने ख़बर दी कि दिलीप चित्रे नहीं रहे. एक घड़ी को तो समझ ही न आया कि उदय क्या कह रहा है. जब समझा तो जी चाहा कि ज़ोर-ज़ोर से चीख़कर इस ख़बर का प्रतिकार करूं. कुछ गालियां बकूं कुछ ख़ुद को, कुछ ज़माने को और कुछ उसको जिसे मौत का नियामक कहा जाता है.


कुछ देर बाद दिलीप भाई का मुस्कराता हुआ चेहरा नज़र आया तो जी चाहा रो लूं. और कुछ मिनट गुज़रे तो यादें फिल्म की तरह आंखों के आगे चलने लगीं.


दिलीप चित्रे भोपाल में हैं. भारत भवन में वागर्थ के निदेशक. आते ही उनका भोपाल के बारे में एक अदभुत आब्ज़र्वेशन यार ये शहर तो नम्बरी लोगों का शहर है ! . कुछ वक़्त पहले ही उनने सुना है कि भोपाल की बस्तियों के नाम 1250,1464,1100 क्वार्टर्स और 74 बंगले, 45 बंगले, 8 बंगले और 4 बंगले हैं. बाद में उनका मज़ाक़ में किया गया यह आब्ज़र्वेशन ख़ुद उनके लिए हक़ीक़त बनकर सामने आया. नम्बरी लोगों ने उन्हें अपना नम्बरीपन दिखा दिया था.


शायद 1981 की बात या 1982 की. इन्दौर जाने वाली एक बस में दिलीप चित्रे और उनकी पत्नी विजया जी सवार हैं. उनके ठीक पीछे वाली सीट पर मैं, जिसकी उन्हें ख़बर न थी. इन्दौर में दलित साहित्य विमर्श का आयोजन था. विजया जी ने पूछा दिलीप, तुम्हें मालूम है इन्दौर में कहां, कैसे पहुंचना है ?.


रानी साहब फिक्र न करें. वहां बस स्टैंड पर हमारे लिए रथ मौजूद होगा जो हमें वहां ले जाएगा.

दिलीप भाई का आशय था कि वहां उन्हें रिसीव करने मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के अधिकारी पूर्णचन्द्र रथ आयेंगे.


मैने पीछे से आवाज़ दी दिलीप भाई. रथ न मिले तो मेरे साथ आटो में चल सकते हैं.

उन्होने पीछे देखा और कहा ज़रूर. रथ को भी आटो में ही ले चलेंगे. और क्या.


ऐसे ख़ुश मिज़ाज और ज़िन्दा दिल इंसान से एक दिन इसी मौत ने क्रूर खेल खेला. उनसे उनका जवान बेटा आशय छीन लिया. आशय 1984 की भोपाल गैस त्रासदी का शिकार हुआ. 19 साल तक बीमारियों से संघर्ष करते हुए 2003 में दिलीप भाई और विजया जी को अकेला छोड़ गया.


इस सदमे ने दोनो को अन्दर से बुरी तरह तोड़ दिया. मगर दोनो ने एक दूसरे को इस तरह सम्हाला कि दोनो भरपूर जीते हुए लगे. एक-दूसरे को ढाढ़स देने का उपाय था जीवन को जीवन से बेहतर जीकर दिखाना. दुनिया की हर ऐसी चीज़ के साथ जुड़ना जो जीवन को एक नया अर्थ और विस्तार देती हो. औरों के जीवन में नया रंग भरती हो. जीने का उत्साह देती हो.


आज भी मेरे ईमेल बक्से में दिलीप भाई के भेजे हुए सैकड़ों निमंत्रण हैं कभी किसी आयोजन के , कभी किसी किताब या फिर कोई कविता/लेख पढ़ने के लिए. ढेर सारे सोशल नेटवर्किंग ग्रुप्स में शामिल होने के लिए. कुछ न हुआ तो फेस बुक के ज़रिये कभी शुभ कामनाओं का कोई गुलदस्ता या फिर कोई पौधा.


अब तक वे न जाने किन-किन बीमारियों से घिर चुके थे. इनमें लीवर कैंसर भी था. मुझे बहुत दिन तक यह मालूम नहीं हो पाया. जिस दिन मालूम हुआ उस दिन पशेमानी में एक मेल दिलीप भाई को भेजा.


दिलीप भाई,

सदमे में हूं.

अक्सर आपकी तबियत खराब होने की बात होती रही है मगर इस बात की ख़बर न थी कि बीमारी लीवर कैंसर है.

इस घड़ी ख़ुद को किस क़दर लाचार महसूस कर रहा हूं. ऐसा लगता है जैसे मुझे हाथ-पैर बांधकर पटक दिया गया है कि बस असहाय सा देखता रहूं. मगर आस एक है - आपकी जीवटता और आपकी जीजीविषा. ऐसा नहीं कि आपके बारे में पूरी तरह बेखबर रहा हूं. देखता रहा हूं कि आप लगातार सक्रिय हैं. किसी घड़ी लगा ही नहीं कि मौला आपसे कोई खेल खेल रहा है.

वैसे कान में बताने वाली बात यह है दिलीप भाई कि मौला अपने अज़ीज़ों से खेल सिर्फ हारने के लिए ही खेलता है. ठीक वैसे ही जैसे हम लोग बच्चों के साथ खेलते समय जीतने की बजाय हारकर खुश होते हैं.

मैं इस बार भी आपकी जीत और मौला को खुश होते हुए देख रहा हूं.

आमीन!

बेखबरी और लापरवाही की माफियों और दुआओं के साथ,

राजकुमार


दिलीप भाई बड़े थे. उन्होने मुझे माफ कर दिया. मगर मैं शायद उस ख़ुदा को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा जो हर दिन इस दुनिया से बेहतर इंसानों को उठाकर अपने पास बुला लेता है.