Thursday, December 31, 2009

नव वर्ष की शुभकामनाएं

२०१० सभी के लिए मंगलमय हो


राजकुमार केसवानी


Friday, December 11, 2009

तस्वीर-ए-लापता : दिलीप चित्रे


कोई तीन साल पहले दिलीप भाई का एक मेल आया जिसमें उन्होने उन्होने अपनी एक सीधे उर्दू में लिखी गई छोटी सी नज़्म भेजी थी. आज उस तस्वीर-ए-लापता को पढ़ता हूं तो तब न समझ में आने वाली बातें समझ में आ रही हैं.

मैं यहां सभी दोस्तों के लिए उस मेल के कुछ ज़रूरी हिस्सों के साथ जस का तस पेश कर रहा हूं.

इसी के साथ चित्रे जी की एक पेंटिंग भी हैं.

Date: 21 May 2006 09:31:22 -0700

tasveer-e-lapatah hain yeh ...
mayoosi ke ek khaufnaak daur se guzaraa hoon main,
wahshat ki syah raahon se guzraa hoon main,
ab bas yahi chaahataa hoon ke main
jo mere hamdam hain unko bayan karoon
mere jahannum ke safar ki chand jhalaken...

(तस्वीर-ए-लापता है ये
मायूसी के एक ख़ौफनाक दौर से गुज़रा हूं मैं
वहशत की स्याह रातों से गुज़रा हूं मैं
अब बस यही चाहता हूं कि मैं
जो मेरे हमदम हैं उनको बयान करूं
मेरे जहनुम के सफर की चंद झलकें...)

...maine mere aziz dost Gulzaar Saheb ko ek chotisee nazm pesh ki thi, taaki apne marz aur dard ka unhe pata bata sakoon. Aaj mein uski naql aap ko e-mail se hi forward kar rahaa hoon.

Filhaal,
Khudaa Haafiz !

Wednesday, December 9, 2009

दिलीप चित्रे नहीं रहे !


आख़िर कोई ख़बर इतनी बुरी कैसे हो सकती है ? इतनी बुरी कि वह कहने लगे कि दिलीप चित्रे नहीं रहे !


इतनी बुरी ख़बरों का गला क्यों नहीं घोंट दिया जाता ?


ऐसी तमाम बुरी ख़बरों को पैदा होने की इजाज़त नहीं मिलनी चाहिए जो दुनिया की हर अच्छी चीज़ को मौत देती हों.

कुछ देर पहले ही उदय प्रकाश ने ख़बर दी कि दिलीप चित्रे नहीं रहे. एक घड़ी को तो समझ ही न आया कि उदय क्या कह रहा है. जब समझा तो जी चाहा कि ज़ोर-ज़ोर से चीख़कर इस ख़बर का प्रतिकार करूं. कुछ गालियां बकूं कुछ ख़ुद को, कुछ ज़माने को और कुछ उसको जिसे मौत का नियामक कहा जाता है.


कुछ देर बाद दिलीप भाई का मुस्कराता हुआ चेहरा नज़र आया तो जी चाहा रो लूं. और कुछ मिनट गुज़रे तो यादें फिल्म की तरह आंखों के आगे चलने लगीं.


दिलीप चित्रे भोपाल में हैं. भारत भवन में वागर्थ के निदेशक. आते ही उनका भोपाल के बारे में एक अदभुत आब्ज़र्वेशन यार ये शहर तो नम्बरी लोगों का शहर है ! . कुछ वक़्त पहले ही उनने सुना है कि भोपाल की बस्तियों के नाम 1250,1464,1100 क्वार्टर्स और 74 बंगले, 45 बंगले, 8 बंगले और 4 बंगले हैं. बाद में उनका मज़ाक़ में किया गया यह आब्ज़र्वेशन ख़ुद उनके लिए हक़ीक़त बनकर सामने आया. नम्बरी लोगों ने उन्हें अपना नम्बरीपन दिखा दिया था.


शायद 1981 की बात या 1982 की. इन्दौर जाने वाली एक बस में दिलीप चित्रे और उनकी पत्नी विजया जी सवार हैं. उनके ठीक पीछे वाली सीट पर मैं, जिसकी उन्हें ख़बर न थी. इन्दौर में दलित साहित्य विमर्श का आयोजन था. विजया जी ने पूछा दिलीप, तुम्हें मालूम है इन्दौर में कहां, कैसे पहुंचना है ?.


रानी साहब फिक्र न करें. वहां बस स्टैंड पर हमारे लिए रथ मौजूद होगा जो हमें वहां ले जाएगा.

दिलीप भाई का आशय था कि वहां उन्हें रिसीव करने मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के अधिकारी पूर्णचन्द्र रथ आयेंगे.


मैने पीछे से आवाज़ दी दिलीप भाई. रथ न मिले तो मेरे साथ आटो में चल सकते हैं.

उन्होने पीछे देखा और कहा ज़रूर. रथ को भी आटो में ही ले चलेंगे. और क्या.


ऐसे ख़ुश मिज़ाज और ज़िन्दा दिल इंसान से एक दिन इसी मौत ने क्रूर खेल खेला. उनसे उनका जवान बेटा आशय छीन लिया. आशय 1984 की भोपाल गैस त्रासदी का शिकार हुआ. 19 साल तक बीमारियों से संघर्ष करते हुए 2003 में दिलीप भाई और विजया जी को अकेला छोड़ गया.


इस सदमे ने दोनो को अन्दर से बुरी तरह तोड़ दिया. मगर दोनो ने एक दूसरे को इस तरह सम्हाला कि दोनो भरपूर जीते हुए लगे. एक-दूसरे को ढाढ़स देने का उपाय था जीवन को जीवन से बेहतर जीकर दिखाना. दुनिया की हर ऐसी चीज़ के साथ जुड़ना जो जीवन को एक नया अर्थ और विस्तार देती हो. औरों के जीवन में नया रंग भरती हो. जीने का उत्साह देती हो.


आज भी मेरे ईमेल बक्से में दिलीप भाई के भेजे हुए सैकड़ों निमंत्रण हैं कभी किसी आयोजन के , कभी किसी किताब या फिर कोई कविता/लेख पढ़ने के लिए. ढेर सारे सोशल नेटवर्किंग ग्रुप्स में शामिल होने के लिए. कुछ न हुआ तो फेस बुक के ज़रिये कभी शुभ कामनाओं का कोई गुलदस्ता या फिर कोई पौधा.


अब तक वे न जाने किन-किन बीमारियों से घिर चुके थे. इनमें लीवर कैंसर भी था. मुझे बहुत दिन तक यह मालूम नहीं हो पाया. जिस दिन मालूम हुआ उस दिन पशेमानी में एक मेल दिलीप भाई को भेजा.


दिलीप भाई,

सदमे में हूं.

अक्सर आपकी तबियत खराब होने की बात होती रही है मगर इस बात की ख़बर न थी कि बीमारी लीवर कैंसर है.

इस घड़ी ख़ुद को किस क़दर लाचार महसूस कर रहा हूं. ऐसा लगता है जैसे मुझे हाथ-पैर बांधकर पटक दिया गया है कि बस असहाय सा देखता रहूं. मगर आस एक है - आपकी जीवटता और आपकी जीजीविषा. ऐसा नहीं कि आपके बारे में पूरी तरह बेखबर रहा हूं. देखता रहा हूं कि आप लगातार सक्रिय हैं. किसी घड़ी लगा ही नहीं कि मौला आपसे कोई खेल खेल रहा है.

वैसे कान में बताने वाली बात यह है दिलीप भाई कि मौला अपने अज़ीज़ों से खेल सिर्फ हारने के लिए ही खेलता है. ठीक वैसे ही जैसे हम लोग बच्चों के साथ खेलते समय जीतने की बजाय हारकर खुश होते हैं.

मैं इस बार भी आपकी जीत और मौला को खुश होते हुए देख रहा हूं.

आमीन!

बेखबरी और लापरवाही की माफियों और दुआओं के साथ,

राजकुमार


दिलीप भाई बड़े थे. उन्होने मुझे माफ कर दिया. मगर मैं शायद उस ख़ुदा को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा जो हर दिन इस दुनिया से बेहतर इंसानों को उठाकर अपने पास बुला लेता है.