Sunday, November 15, 2009

अजब दास्ताँ है मेरी ज़िंदगी की...


एक सदी – यानी सौ बरस. कितने सारे होते हैं ये सौ बरस ? इतने कि हम जिनसे मोहब्बत करते हैं तो उनकी लम्बी उम्र की दुआएं माँगते हुए कहते हैं – ‘आप सौ साल जिएं’. इस दौर में भी कभी-कभार ऐसी दुआएं सच हो ही जाती हैं.

इसी ख़्याल से सोचता हूं तो सोचता हूं आखिर किसने मांगी होगी उमराव जान के लिए ऐसी दुआ. अब देखिए न उमराव की कहानी को सौ बरस के ऊपर हो चले हैं और यह न अब तक सिर्फ ज़िन्दा है बल्कि दिन-ब-दिन उस पर जवानी आती जाती है. उम्र तो बहुत सारे किस्सों और फसानों की उमराव से ज़्यादा है और वो अपनी पूरी पुख्तगी के साथ हमारे साथ मौजूद हैं, मगर उमराव जान की बात थोड़ी अलग है.

मेरी समझ से उमराव जान की इस जवानी का राज़ यह है कि उसकी पूरी कहानी अब तक किसी खूबसूरत राज़ की तरह कुछ सामने है कुछ पसे-पर्दा है. वक़्त की हवाओं के थपेड़े या फिर किसी दिले-आशिक़ की आह से इस राज़ से ज़रा पर्दा हटता है तो कभी एक हक़ीक़त लगती है, कभी एक फसाना लगता है. और जो कुछ कसर बाकी थी उसे मुज़फ्फर अली ने 1981 में रेखा को ‘उमराव जान’ बनाकर पूरा कर दिया.

कभी-कभी कोई फनकार फसानों को भी हक़ीक़त की शक्ल दे देता है. रेखा ने यही काम ‘उमराव जान’ के साथ किया है. अब इसके बाद तो कोई चाहकर भी यह नहीं चाहता कि कोई इसे फसाना कहे.

मैं ख़ुद को भी उन्हीं में से एक गिनता हूं. और मुझे ताज़ा दिलासा इस बात ने दिया है कि कुछ अर्सा पहले उर्दू के नामवर प्रोफेसर क़मर रईस साहब ने एक पत्रिका ‘ऐवाने-उर्दू’ में उमराव जान की एक असल फोटो प्रकाशित की है. यह फोटो उन्हें हैदराबाद से किसी नवाब की लायब्रेरी से मिली है. उस लायब्रेरी में रखी “उमराव जान ‘अदा' “ के पहले एडीशन के अन्दर एक बहुत ही ज़र्द चेहरे वाला ख़स्ता हाल लिफाफा मिला जिसके अन्दर कैमरे से खींची गई यह फोटो मौजूद थी.

यह बात पहले ही ज़माने पर ज़ाहिर है कि जब १९०५ में मिर्ज़ा हादी रुस्वा की यह किताब पहली बार छपकर लोगों तक पहुंची तो उसके फौरन बाद ही इस किताब के जवाब में एक दूसरी किताब आ गई थी ‘जुनूने इंतज़ार याने फसाना-ए-मिर्ज़ा रुस्वा’. माना जाता है कि यह किताब उमराव जान ने रुस्वा से नाराज़ होकर जवाब में लिखी थी. इसके बावजूद अब तक इस बात पर बहस जारी है कि मिर्ज़ा रुस्वा ने अपनी निजी अनुभवों को ‘उमराव जान’ नाम का एक किरदार घड़कर बड़ी कामयाबी से पेश किया है. इतनी कामयाबी से कि वह कदम-कदम पर असल लगता है.

अब हक़ीक़त जो हो लेकिन यह सही है मिर्ज़ा हादी रुस्वा की बदौलत हम सब को कुछ खूबसूरत ग़ज़लें, कुछ बेहतरीन संगीत और कुछ फिल्में मिल गईं.

इतना सब कह चुकने के बाद यह ठीक नहीं है कि मिर्ज़ा रुस्वा और उमराव के बारे में कोई और बात ही न करें. मिर्ज़ा मुहम्मद हादी रुस्वा (1857 से 1931) उर्दू,अरबी,फारसी, अंग्रेज़ी,लैटिन और दूसरी कई ज़बानों के जानकार थे. लखनऊ में पैदा हुए,पले,बड़े. शायरी का शौक़ लगा तो उस दौर के मशहूर उस्ताद दबीर ने मदद की.

यूं तो उन्होने कई किताबें लिखीं और अंग्रेज़ी किताबों के उर्दू मे अनुवाद किए लेकिन ‘उमराव जान अदा’ उनकी अकेली पहचान है.

कि बचपन किसी का, जवानी किसी की

मुज़फ्फर अली की ‘उमराव जान’के संगीत और रेखा की बेमिसाल अदाकारी ने इस कहानी को इसी एक फिल्म के साथ जोड़ कर रख दिया. हक़ीक़त यह है कि इसी कहानी पर सबसे पहले निदेशक एस.एम.यूसुफ ने 1958 में एक फिल्म बनाई थी ‘मेहंदी’. पाकिस्तान में भी 1972 में ‘उमराव जान अदा’ के नाम से फिल्म बनी और 2003 में जियो टीवी ने इसे सीरियल के रूप में पेश किया. लेकिन पाकिस्तान में भी 1981 वाली ‘उमराव जान’ ही ज़्यादा प्रसिद्ध है. 2006 में भी जे.पी.दत्ता ने अभिषेक और ऎश्वर्या को लेकर फिल्म बनाई मगर वो शहीद हो गई.

जब ज़रा ‘उमराव जान’ में ख़य्याम साहब की लासानी बन्दिशों, आशा भोंसले की मद्धम पर आकर इठलाती गायकी और शहरयार की खूबसूरत शायरी की छांव से ज़रा बाहर निकलकर पीछे देखता हूं तो मुझे 1958 की ‘मेहंदी’ नज़र आती है. फिल्म में नवाब सुल्तान वाली भूमिका अजीत ने और अमीरन उर्फ उमराव जान की भूमिका में थीं जयश्री. जयश्री मतलब वी.शांताराम की पत्नी और अभिनेत्री राजश्री की मां. पति से अलग होने के बाद यह उनकी पहली फिल्म थी.

यह फिल्म अभिनय और मेकिंग के लिहाज़ से 1981 की फिल्म से काफी कमज़ोर पड़ती है लेकिन इसका संगीत और शायरी अपनी तरह से बहुत लाजवाब है. यह शायद संगीतकार रवि की बेहतरीन फिल्मों में से एक है. ख़ुमार बाराबंकवी की लाजवाब शायरी ने उमराव जान की पीड़ा को बेहद खूबसूरत लफ्ज़ दिये हैं.

इस फिल्म में ज़्यादातर गीत लता मंगेशकर के गाए हुए हैं. मुझे यकीन है आपको भी याद होंगे. अजब दास्तां है मेरी ज़िन्दगी की, कि बचपन किसी का, जवानी किसी की / मुक़द्दर ने मुझसे ये क्या दिल्लगी की / कि बचपन किसी का, जवानी किसी की. उमराव पर फिल्माई गई लगभग हर ग़ज़ल के मतले मतलब आखिरी शेर में ख़ुमार साहब ने बहुत खूबसूरती से शायर की जगह उमराव के तख़ल्लुस ‘अदा’ का इस्तेमाल भी किया है. आख़िर को उसे फिल्म में एक शायरा के तौर पर भी दिखाया गया है. सिखाया गया है इशारों पे चलना / निगाहें बदलना, दिलों को मसलना / ‘अदाहर अदा है मेरी बेक़सी की’.

दूसरा गीत भी क्या गीत है भई वाह. ‘अपने किये पे कोई पशेमान हो गया / लो और मौत का सामान हो गया’. और फिर आखिर में अदा. ‘’ये बहकी-बहकी बातें, भरी बज़्म में अदा / ये आज क्या तुझे अरे नादान हो गया’.

दो और खूबसूरत नगीने. प्यार की दुनिया लुटेगी हमें मालूम था / दिल की दिल ही में रहेगी, हमें मालूम था’. दूसरा हैअदाओं मे शोखी, निगाहों में मस्ती / लड़कपन मुझे दे गया जाते-जाते. इसी के आखिर में है कि अदा कोई अपना नहीं है जो समझे, मेरे दिल की धड़कन, मेरे दिल की बातें / किसी के कानो में आवाज़ पहुंची, ज़ुबां थक गई है सुनाते-सुनाते’.

इन सबके ऊपर मेरे दिल में जिस चीज़ न अपने लिए एक ख़ास जगह बनाई है वह क़ामिल रशीद की लिखी हुई है. अन्दाज़ साहिर लुधियानवी वाला है. ज़रा देखिए.

ये अफसाना नहीं है सुनने वालों दिल की बाते हैं सियाही ग़म की है वैसे बड़ी रंगीन रातें हैं

यूं तो बहुत लम्बी नज़्म है लेकिन कम से कम एक हिस्सा और सुन लीजिए.

है गुस्ताख़ी मगर कहना है कुछ दुनिया से, मर्दों से शरीफों, मनचलों, मुल्लां से, आवारगर्दों से है बेपर्दा मगर ताने दिए जाते हैं पर्दों से ये अफसाना नहीं है...

अगर आपने ‘उमराव जान’ (1981) देखी है तो आपके लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि फिल्म फिल्म ‘मेहन्दी’ में उस्ताद जी का रोल ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के संगतराश – कुमार ने निभाया था जिसे बाद में भारत भूषण ने निभाया. इस फिल्म में उन पर हेमंत कुमार का गाया एक गीत भी फिल्माया गया है – बेदर्द ज़माना तेरा दुश्मन है तो क्या है / दुनिया में नहीं जिसका कोई उसका ख़ुदा है’.

इस सारी बात का लबो-लुब्बाब यह है कि ‘उमराव जान’ के नाम के साथ अकेली एक फिल्म को याद किया जाता है जबकि ‘मेहंदी’ भी इसी उपन्यास पर आधारित थी और इसमें खूबसूरत संगीत था. फिल्म की छोड़िए पर हो सके तो आप इसका संगीत ज़रूर सुनिये और मुझे भी बताइये कि आपको यह कैसा लगा.

एक बात और. उमराव जान ख़ुद एक अछी शायरा थीं. पुस्तक में उसकी शायरी के कुछ खूबसूरत नमूने मौजूद हैं.

किसको सुनाएं हाल दिले-ज़ार अदा आवारगी में हमने ज़माने की सैर की

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शब--फुरकत बसर नहीं होती नहीं होती, सहर नहीं होती शोर--फरयाद अर्श तक पहुंचा मगर उसको ख़बर नहीं होती

लीजिए जिस बात की ‘उसको’ तब ख़बर नहीं हुई उस बात की ख़बर अब सारे ज़मने में है. इसी लिए तो चचा ग़ालिब ने कहा है कि ‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक’.


और...

इस नफे-नुकसान की गणित से चलती दुनिया में जब कोई लाभ-हानि से हटकर सोचता है तो बहुत प्यारा लगता है. फिल्म ‘ब्लू अम्ब्रेला’ को देखे काफी दिन बीत चुके हैं पर पंकज कपूर की बात अब तक साथ चल रही है.

फिल्म में पंकज कपूर का दिल एक नीले रंग के खूबसूरत छते पर आ जाता है जो कि एक बच्ची के पास है. जब तमाम प्रलोभनों के बावजूद वह बच्ची नन्दू (पंकज कपूर) को छाता बेचने से इंकार कर देती है तो वह चोरी पर उतारू हो जाता है.

जब उसे समझाइश दी जाती है कि ऐसा नहीं करना चाहिए और आखिर एक मामूली से छाते के लिए यह सब करने से क्या फायदा. तब ज़रा उसका सवालों से भरा जवाब देखिये.

बारिश के पानी में नाव दौड़ाने से कोई फायदा होता है क्या ? सूरज को उस पहाड़ी के पीछे डूबते हुए देखने से कोई फायदा है क्या ? आत्मा की ख़ुशी के लिए फायदा-नुकसान नहीं देखा जाता.’
है न सौ टंच सची बात ? बस तो इस घड़ी तो मैं चला अगले हफ्ते फिर करेंगे वही आत्मा की खुशी की बात – आपस की बात .
जय-जय.

(दैनिक भास्कर के रविवारीय 'रसरंग' में प्रकाशित १५ नवम्बर २००९ )